वैदिक सन्ध्या उपासना
( महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज द्वारा निर्देशित आर्यों की दिनचर्या )
‘सन्ध्यायन्ति सन्ध्यायते वा परब्रह्म यस्यां सा सन्ध्या ‘ भली भांति ध्यान करते हैं वा जिसमें परमेश्वर का ध्यान किया जाये वह सन्ध्या है। सो रात और दिन के संयोग समय दोनों सन्ध्याओं में सब मनुष्यों को परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए ।
पहले बाह्य जलादि से शरीर की शुद्धि और राग द्वेष आदि के त्याग से भीतर की शुद्धि करनी चाहिए।तब कुशा वा हाथ से मार्जन करे। अर्थात् परमेश्वर का ध्यान आदि करने के समय किसी प्रकार का आलस्य ना आवे। फिर कम से कम तीन प्राणायाम करे। अर्थात् भीतर के वायु को बल से निकाल कर यथा शक्ति बाहर ही रोक दे। फिर शनैः शनैः ग्रहण करके कुछ चिर भीतर ही रोक के बाहर निकार दे, और वहाँ भी कुछ रोके। इस प्रकार कम से कम तीन बार करे। इससे आत्मा और मन की स्थिति सम्पादन करे। इसके अनन्तर
गायत्री मन्त्र
ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् ॥ -यजु. ३६.३
मन्त्र से शिखा को बाँध के रक्षा करे। इसका प्रयोजन यह है कि इधर उधर केश न गिरें, सो यदि केशादि पतन ना हो तो न करें और रक्षा करने का प्रयोजन यह है कि परमेश्वर प्रार्थित होकर सब भले कामों में सदा सब जगह में हमारी रक्षा करे।
ओ३म् शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये। शंयोरभि स्रवन्तु नः॥ —यजुः अ॰ 36।
इस मन्त्र को एक वार पढ़के तीन आचमन करे। पश्चात् पात्र में से मध्यमा अनामिका अंगुलियों से जलस्पर्श करके प्रथम दक्षिण और पश्चात् वाम अंगों का निम्नलिखित मन्त्रों से स्पर्श करे-
ओ३म् वाक् वाक्॥
—इस मन्त्र से मुख का दक्षिण और वाम पार्श्व।
ओ३म् प्राणः प्राणः॥
—इस से दक्षिण और वाम नासिका के छिद्र।
ओ३म् चक्षुश्चक्षुः॥
—इस से दक्षिण और वाम नेत्र
ओ३म् श्रोत्रं श्रोत्रम्॥
—इस से दक्षिण और वाम श्रोत्र।
ओ३म् नाभिः॥
—इस से नाभि।
ओ३म् हृदयम्॥
—इस से हृदय।
ओ३म् कण्ठः॥
—इस से कण्ठ।
ओ३म् शिरः॥
—इस से मस्तक।
ओ३म् बाहुभ्यां यशोबलम्॥
—इस से दोनों भुजाओं के मूल स्कन्ध, और—
ओ३म् करतलकरपृष्ठे॥
—इस से दोनों हाथों के ऊपर-तले स्पर्श करके, मार्जन करे—
ओ३म् भूः पुनातु शिरसि॥
—इस मन्त्र से शिर पर।
ओ३म् भुवः पुनातु नेत्रयोः॥
—इस मन्त्र से दोनों नेत्रों पर।
ओ३म् स्वः पुनातु कण्ठे॥
—इस मन्त्र से कण्ठ पर।
ओ३म् महः पुनातु हृदये॥
—इस मन्त्र से हृदय पर।
ओ३म् जनः पुनातु नाभ्याम्॥
—इस से नाभि पर।
ओ३म् तपः पुनातु पादयोः॥
—इस से दोनों पगों पर।
ओ३म् सत्यं पुनातु पुनः शिरसि॥
—इस से पुनः मस्तक पर।
ओ३म् खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र॥
—इस मन्त्र से सब अंगों पर छींटा देवे।
तत्पश्चात् प्राणायाम की क्रिया करता जावे, और नीचे लिखे मन्त्र का जप भी करता जाय—
ओ३म् भूः। ओ३म् भुवः। ओ३म् स्वः। ओ३म् महः। ओ३म् जनः। ओ३म् तपः। ओ३म् सत्यम्॥
इसी रीति से कम से कम 3 तीन और अधिक से अधिक 21 इक्कीस प्राणायाम करे।
तत्पश्चात् सृष्टिकर्त्ता परमात्मा और सृष्टिक्रम का विचार नीचे लिखित मन्त्रों से करे और जगदीश्वर को सर्वव्यापक न्यायकारी सर्वत्र सर्वदा सब जीवों के कर्मों के द्रष्टा को निश्चित मानके पाप की ओर अपने आत्मा और मन को कभी न जाने देवे, किन्तु सदा धर्मयुक्त कर्मों में वर्तमान रक्खे—
ओ३म् ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत। ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः॥1॥
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत।
अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी॥2॥
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।
दिवं च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्वः॥3॥
—ऋ॰ मं॰ 10। सू॰ 190॥
इन मन्त्रों को पढ़के पुनः
ओ३म् शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये। शंयोरभि स्रवन्तु नः॥ —यजुः अ॰ 36।
इस मन्त्र से 3 तीन आचमन करके निम्नलिखित मन्त्रों से सर्वव्यापक परमात्मा की स्तुति-प्रार्थना करे—
ओ३म् प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥1॥
दक्षिणा दिगिन्द्रोऽधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥2॥
प्रतीची दिग्वरुणोऽधिपतिः पृदाकू रक्षितान्नमिषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥3॥
उदीची दिक् सोमोऽधिपतिः स्वजो रक्षिताशनिरिषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥4॥
ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपतिः कल्माषग्रीवो रक्षिता वीरुध इषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥5॥
ऊर्ध्वा दिग्बृहस्पतिरधिपतिः श्वित्रो रक्षिता वर्षमिषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥6॥
—अथर्व॰ का॰ 3। सू॰ 27। मं॰ 1-6॥
इन मन्त्रों को पढ़ते जाना, और अपने मन से चारों ओर बाहर भीतर परमात्मा को पूर्ण जान कर निर्भय निश्शट उत्साही आनन्दित पुरुषार्थी रहना।
तत्पश्चात् परमात्मा का उपस्थान, अर्थात् परमेश्वर के निकट मैं और मेरे अतिनिकट परमात्मा है ऐसी बुद्धि करके करे—
(जातवेदसे सुनवाम सोममरातीयतो नि दहाति वेदः । स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरितात्यग्निः॥1॥ —ऋ॰ मं॰ 1। सू॰ 99। मं॰ 1॥)
उद्वयं तमसस्परि स्वः पश्यन्तऽ उत्तरम्।
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम्॥1॥
—यजुः अ॰ 35। मन्त्र 14॥
उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः।
दृशे विश्वाय सूर्यम्॥2॥
—यजुः अ॰ 33। मन्त्र 31॥
चित्रं देवानामुदगादनीवं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः।
आप्रा द्यावापृथिवीऽअन्तरिक्ष सूर्यऽआत्मा जगतस्तस्थुषश्च॥3॥
—यजुः अ॰ 13। मं॰ 46॥
तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतम्भूयश्च शरदः शतात्॥4॥ —यजुः अ॰ 36। मं॰ 24॥
इन मन्त्रों से परमात्मा का उपस्थान करके, पुनः
ओ३म् शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये। शंयोरभि स्रवन्तु नः॥ —यजुः अ॰ 36।
इस से 3 तीन आचमन करके, पश्चात् गायत्रीमन्त्र का अर्थ-विचारपूर्वक परमात्मा की स्तुतिप्रार्थनोपासना करे।
ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।।
अर्थ—(ओ३म्) यह मुख्य परमेश्वर का नाम है, जिस नाम के साथ अन्य सब नाम लग जाते हैं। (भूः) जो प्राण का भी प्राण, (भुवः) सब दुःखों से छुड़ानेहारा, (स्वः) स्वयं सुखस्वरूप और अपने उपासकों को सब सुख की प्राप्ति करानेहारा है, (तत्) उस (सवितुः) सब जगत् की उत्पत्ति करनेवाले, सूर्यादि प्रकाशकों के भी प्रकाशक, समग्र ऐश्वर्य के दाता, (देवस्य) कामना करने योग्य, सर्वत्र विजय करानेहारे परमात्मा का जो (वरेण्यम्) अतिश्रेष्ठ ग्रहण और ध्यान करनेयोग्य (भर्गः) सब क्लेशों को भस्म करनेहारा, पवित्र शुद्ध स्वरूप है, (तत्) उस को हम लोग (धीमहि) धारण करें। (यः) यह जो परमात्मा (नः) हमारी (धियः) बुद्धियों को उत्तम गुण, कर्म, स्वभावों में (प्रचोदयात्) प्रेरणा करे।
पुनः—
हे ईश्वर दयानिधे ! भवत्कृपयाऽनेन जपोपासनादि कर्मणा धर्मार्थ काममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः।।
“हे परमेश्वर दयानिधे ! आपकी कृपा से जपोपासनादि कर्मों को करके हम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि को शीघ्र प्राप्त होवें।”
पुनः—
ओ३म् नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शङ्कराय च
मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च॥
—यजुः अ॰ 16। मं॰ 41॥
ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।
इति वैदिक सन्ध्या