वैदिक सन्ध्या उपासना 

     पहले बाह्य जलादि से शरीर की शुद्धि और राग द्वेष आदि के त्याग से भीतर की शुद्धि करनी चाहिए।तब कुशा वा हाथ से मार्जन करे। अर्थात् परमेश्वर का ध्यान आदि करने के समय किसी प्रकार का आलस्य ना आवे। फिर कम से कम तीन प्राणायाम करे। अर्थात् भीतर के वायु को बल से निकाल कर यथा शक्ति बाहर ही रोक दे। फिर शनैः शनैः ग्रहण करके कुछ चिर भीतर ही रोक के बाहर निकार दे,  और वहाँ भी कुछ रोके। इस प्रकार कम से कम तीन बार करे। इससे आत्मा और मन की स्थिति सम्पादन करे। इसके अनन्तर 

गायत्री मन्त्र 

मन्त्र से शिखा को बाँध के रक्षा करे। इसका प्रयोजन यह है कि इधर उधर केश न गिरें, सो यदि केशादि पतन ना हो तो न करें और रक्षा करने का प्रयोजन यह है कि परमेश्वर प्रार्थित होकर सब भले कामों में सदा सब जगह में हमारी रक्षा करे।

इस मन्त्र को एक वार पढ़के तीन आचमन करे। पश्चात् पात्र में से मध्यमा अनामिका अंगुलियों से जलस्पर्श करके प्रथम दक्षिण और पश्चात् वाम अंगों का निम्नलिखित मन्त्रों से स्पर्श करे-

—इस से दक्षिण और वाम नासिका के छिद्र।

—इस से दक्षिण और वाम नेत्र

—इस से दक्षिण और वाम श्रोत्र।

—इस से नाभि।

—इस से हृदय।

—इस से कण्ठ।

—इस से मस्तक।

—इस से दोनों भुजाओं के मूल स्कन्ध, और—

—इस से दोनों हाथों के ऊपर-तले स्पर्श करके, मार्जन करे—

—इस मन्त्र से शिर पर।

—इस मन्त्र से दोनों नेत्रों पर।

—इस मन्त्र से कण्ठ पर।

—इस मन्त्र से हृदय पर।

—इस से नाभि पर।

—इस से दोनों पगों पर।

—इस से पुनः मस्तक पर।

—इस मन्त्र से सब अंगों पर छींटा देवे।

तत्पश्चात् प्राणायाम की क्रिया करता जावे, और नीचे लिखे मन्त्र का जप भी करता जाय—

इसी रीति से कम से कम 3 तीन और अधिक से अधिक 21 इक्कीस प्राणायाम करे।

तत्पश्चात् सृष्टिकर्त्ता परमात्मा और सृष्टिक्रम का विचार नीचे लिखित मन्त्रों से करे और जगदीश्वर को सर्वव्यापक न्यायकारी सर्वत्र सर्वदा सब जीवों के कर्मों के द्रष्टा को निश्चित मानके पाप की ओर अपने आत्मा और मन को कभी न जाने देवे, किन्तु सदा धर्मयुक्त कर्मों में वर्तमान रक्खे—

 —ऋ॰ मं॰ 10। सू॰ 190॥

इन मन्त्रों को पढ़के पुनः 

इस मन्त्र से 3 तीन आचमन करके निम्नलिखित मन्त्रों से सर्वव्यापक परमात्मा की स्तुति-प्रार्थना करे—

—अथर्व॰ का॰ 3। सू॰ 27। मं॰ 1-6॥

इन मन्त्रों को पढ़ते जाना, और अपने मन से चारों ओर बाहर भीतर परमात्मा को पूर्ण जान कर निर्भय निश्शट उत्साही आनन्दित पुरुषार्थी रहना।

तत्पश्चात् परमात्मा का उपस्थान, अर्थात् परमेश्वर के निकट मैं और मेरे अतिनिकट परमात्मा है ऐसी बुद्धि करके करे—

(जातवेदसे सुनवाम    सोममरातीयतो नि दहाति  वेदः   । स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरितात्यग्निः॥1॥ —ऋ॰ मं॰ 1। सू॰ 99। मं॰ 1॥)

इन मन्त्रों से परमात्मा का उपस्थान करके, पुनः 

इस से 3 तीन आचमन करके, पश्चात् गायत्रीमन्त्र का अर्थ-विचारपूर्वक परमात्मा की स्तुतिप्रार्थनोपासना करे।

 पुनः—

पुनः—

—यजुः अ॰ 16। मं॰ 41॥

इति वैदिक सन्ध्या

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