दैनिक‌ प्रातः कालीन यज्ञ ( अग्निहोत्र ) विधि

( महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज द्वारा निर्देशित आर्यों की दिनचर्या )

इस से एक।

इस से दूसरा।

इस से तीसरा आचमन करके, तत्पश्चात् नीचे लिखे मन्त्रों से जल करके अंगों का स्पर्श करें—

इस मन्त्र से नासिका के दोनों छिद्र।

इस मन्त्र से दोनों आँखें।

इस मन्त्र से दोनों कान।

इस मन्त्र से दोनों बाहु।

इस मन्त्र से दोनों जंघा और

इस मन्त्र से दाहिने हाथ से जल-स्पर्श करके मार्जन करना।

                              —यजुः अ॰ 30। मं॰ 3॥

तू सर्वेश सकल सुखदाता, शुद्ध स्वरूप विधाता है।

उसके कष्ट नष्ट हो जाते, जो तेरे ढिंग आता है।।

सारे दुर्गुण-दुव्र्यसनों से, हमको नाथ बचा लीजे।

मंगलमय गुण कर्म पदारथ, प्रेम सिन्धु हमको दीजे ।।

                                             —यजुः अ॰ 13। मं॰ 4॥

तू ही स्वयं प्रकाश सुचेतन, सुखस्वरूप शुभदाता हे।

सूर्यचन्द्र लोकादिक को तू रचता ओर टिकाता है।।

पहले था अब भी तू ही है, घट घट में व्यापक स्वामी।

योग भक्ति तप द्वारा तुमको पावे हम अन्तर्यामी ।।

                                              —यजुः अ॰ 25। मं॰ 13॥

तू ही आत्मज्ञान बलदाता सुयश विज्ञजन गाते हैं।

तेरी चरण-शरण में आकर भव सागर तर जाते हैं।।

तुझको ही जपना जीवन है मरण तुझे विसराने में ।

मेरी सारी शक्ति लगे प्रभु, तुझसे लगन लगाने में ।।

                                                  —यजुः अ॰ 23। मं॰ 3

तूने अपनी अनुपम माया से जग ज्योति जगाई है।

मनुज और पशुओं को रचकर निज महिमा प्रगटाई है।।

अपने हिय सिंहासन पर श्रद्धा से तुझे बिठाते हैं ।

भक्ति भाव की भेंटे लेकर तव चरणो में आते हैं ।।

                                               —यजुः अ॰ 32। मं॰ 6॥

तारे रवि चन्द्रादिक रचकर निज प्रकाश चमकाया है ।

धरणी को धारण कर तूने कौशल अलख लखाया है ।।

तू ही विश्व विधाता पोषक, तेरा ही हम ध्यान करें ।

शुद्ध भाव से भगवन् तेरे भजनामृत का पान करें ।।

                                                  —ऋ॰ म॰ 10। सू॰ 121। म॰ 10॥

तुझसे भिन्न न कोई जग में, सब में तू ही समाया है।

जड़-चेतन सब तेरी रचना तुझमें आश्रय पाया है।।

हे सर्वोपरि विभो विश्व का, तूने साज सजाया है ।

हेतु रहित अनुराग दीजिए, यही भक्त को भाया है ।।

                                        —यजु॰ अ॰ 32। मं॰ 10॥

तू गुरू है प्रजेश भी तू है, पाप-पुण्य फल दाता है।

तू ही सखा बन्धु मम तू ही, तुझसे ही सब नाता है ।।

भक्तों को भव बन्धन से, तू ही मुक्त कराता है ।

तू है अज अद्वैत महाप्रभु, सर्वकाल का ज्ञाता है ।।

                                                 —यजुः अ॰ 40। मं॰ 16

तू है स्वयं प्रकाशरूप प्रभु सबका सिरजनहार तू ही।

रसना निशदिन रटे तुम्हीं को मन में बसना सदा तू ही ।।

अर्थ-अनर्थ से हमें बचाते रहना हरदम दयानिधान ।

अपने भक्तजनों को भगवान् दीजे यही विशद वरदान ।।

॥ इतीश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासनाप्रकरणम्॥

पूर्वोक्त समिधाचयन वेदी में करें। पुनः—

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!