जन्माष्टमी पर्व पर यज्ञ

योगेश्वर श्री कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर

किया जाने वाला विशेष यज्ञ इस प्रकार करें

-:    आचमनम्   :-

[ ‘आधिभौतिक-आधिदैविक-आध्यात्मिक’  इन तीनों प्रकार की शान्ति के लिए तीन बार आचमन किया जाता है। ]

ओ३म् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा॥१॥ ( तैत्तिरीयारण्यक प्र० १०/ अनु० ३२ ) 

( ओम् ) यह परमेश्वर मुख्य नाम है, हे ( अमृत ) सुखप्रद जल ! तू ( उपस्तरणम् ) प्राणियों का आश्रय भुत ( असि ) है। ( स्वाहा ) यह हमारा कथन शोभन हो। 

इस से एक।

ओ३म् अमृतापिधानमसि स्वाहा॥२॥ ( तैत्तिरीयारण्यक प्र० १०/ अनु० ३५ ) 

हे ( अमृत ) अमृत तू ( अपिधानम् ) निश्चय पोषक ( असि ) है। 

इस से दूसरा।

ओ३म् सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा॥३॥ ( मानवगृह्य० प्रथम पुरुष ९ वां खण्ड )

( मयि ) मुझ में ( सत्यं ) सत्यता ( यशः ) कीर्ति ( श्रीः ) शोभा ( श्रीः ) लक्ष्मी ( श्रयताम् ) स्थित हो।

इस से तीसरा आचमन करके, तत्पश्चात् नीचे लिखे मन्त्रों से जल करके अंगों का स्पर्श करें—

-:   अङ्गस्पर्श ( मार्जनम् )  :-

ओ३म् वाङ्म आस्येऽस्तु॥१॥ इस मन्त्र से मुख।

ओ३म् नसोर्मे प्राणोऽस्तु॥२॥ इस मन्त्र से नासिका के दोनों छिद्र।

ओ३म् अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु॥३॥ इस मन्त्र से दोनों आँखें।

ओ३म् कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु॥४॥ इस मन्त्र से दोनों कान।

ओ३म् बाह्वोर्मे बलमस्तु॥५॥ इस मन्त्र से दोनों बाहु।

ओ३म् ऊर्वोर्मऽओजोऽस्तु॥६॥ इस मन्त्र से दोनों जङ्घा और

ओ३म् अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु॥७।। ( पारस्करगृ० का०१, कण्डिका३, सू०२५ )

इस मन्त्र से दाहिने हाथ से जल-स्पर्श करके मार्जन करना।

-: यज्ञोपवीत धारण :-

निम्नलिखित मन्त्र से यज्ञोपवीत धारण करें –

ओ३म् यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।

आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥

ओ३म् यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि॥

-:   अथेश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासनामन्त्राः   :-

ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यद् भद्रं तन्नऽआ सुव॥1॥ 

                              —यजुः अ॰ 30। मं॰ 3॥

अर्थ—हे (सवितः) सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, (देव) शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके (नः) हमारे (विश्वानि) सम्पूर्ण (दुरितानि) दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को (परा सुव ) दूर कर दीजिये। (यत्) जो (भद्रम्) कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, (तत्) वह सब हम को (आ सुव) प्राप्त कीजिए॥1॥

तू सर्वेश सकल सुखदाता, शुद्ध स्वरूप विधाता है।

उसके कष्ट नष्ट हो जाते, जो तेरे ढिंग आता है।।

सारे दुर्गुण-दुव्र्यसनों से, हमको नाथ बचा लीजे।

मंगलमय गुण कर्म पदारथ, प्रेम सिन्धु हमको दीजे ।।

हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।

स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥2॥

                                             —यजुः अ॰ 13। मं॰ 4॥

अर्थ—जो (हिरण्यगर्भः) स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाश करनेहारे सूर्य-चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, जो (भूतस्य) उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का (जातः) प्रसिद्ध (पतिः) स्वामी (एकः) एक ही चेतनस्वरूप (आसीत्) था, जो (अग्रे) सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व (समवर्त्तत) वर्तमान था, (सः) सो (इमाम्) इस (पृथिवीम्) भूमि (उत) और (द्याम्) सूर्यादि को (दाधार) धारण कर रहा है। हम लोग उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) शुद्ध परमात्मा के लिए (हविषा) ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से (विधेम) विशेष भक्ति किया करें॥2॥

तू ही स्वयं प्रकाश सुचेतन, सुखस्वरूप शुभदाता हे।

सूर्यचन्द्र लोकादिक को तू रचता ओर टिकाता है।।

पहले था अब भी तू ही है, घट घट में व्यापक स्वामी।

योग भक्ति तप द्वारा तुमको पावे हम अन्तर्यामी ।।

यऽ आत्मदा बलदा यस्य विश्वऽउपासते प्रशिषं यस्य देवाः।

यस्य च्छायाऽमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥3॥

                                              —यजुः अ॰ 25। मं॰ 13॥

अर्थ—(यः) जो (आत्मदाः) आत्मज्ञान का दाता, (बलदाः) शरीर, आत्मा और समाज के बल का देनेहारा, (यस्य) जिस की (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (उपासते) उपासना करते हैं, और (यस्य) जिस का (प्रशिषम्) प्रत्यक्ष, सत्यस्वरूप शासन और न्याय अर्थात् शिक्षा को मानते हैं, (यस्य) जिस का (छाया) आश्रय ही (अमृतम्) मोक्षसुखदायक है, (यस्य) जिस का न मानना अर्थात् भक्ति न करना ही (मृत्युः) मृत्यु आदि दुःख का हेतु है, हम लोग उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) सकल ज्ञान के देनेहारे परमात्मा की प्राप्ति के लिये (हविषा) आत्मा और अन्तःकरण से (विधेम) भक्ति अर्थात् उसी की आज्ञा पालन करने में तत्पर रहें॥3॥

तू ही आत्मज्ञान बलदाता सुयश विज्ञजन गाते हैं।

तेरी चरण-शरण में आकर भव सागर तर जाते हैं।।

तुझको ही जपना जीवन है मरण तुझे विसराने में ।

मेरी सारी शक्ति लगे प्रभु, तुझसे लगन लगाने में ।।

यः प्राणतो निमिषतो महित्वैकऽ इद्राजा जगतो बभूव।

यऽईशेऽ अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥4॥

                                                  —यजुः अ॰ 23। मं॰ 3

अर्थ—(यः) जो (प्राणतः) प्राणवाले और (निमिषतः) अप्राणिरूप (जगतः) जगत् का (महित्वा) अपने अनन्त महिमा से (एकः इत्) एक ही (राजा) विराजमान राजा (बभूव) है, (यः) जो (अस्य) इस (द्विपदः) मनुष्यादि और (चतुष्पदः) गौ आदि प्राणियों के शरीर की (ईशे) रचना करता है, हम लोग उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) सकलैश्वर्य के देनेहारे परमात्मा के लिये (हविषा) अपनी सकल उत्तम सामग्री से (विधेम) विशेष भक्ति करें॥4॥

तूने अपनी अनुपम माया से जग ज्योति जगाई है।

मनुज और पशुओं को रचकर निज महिमा प्रगटाई है।।

अपने हिय सिंहासन पर श्रद्धा से तुझे बिठाते हैं ।

भक्ति भाव की भेंटे लेकर तव चरणो में आते हैं ।।

येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा येन स्वः स्तभितं येन नाकः।

योऽअन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥5॥

                                               —यजुः अ॰ 32। मं॰ 6॥

अर्थ—(येन) जिस परमात्मा ने (उग्रा) तीक्ष्ण स्वभाव वाले (द्यौः) सूर्य आदि (च) और (पृथिवी) भूमि को (दृढा) धारण, (येन) जिस जगदीश्वर ने (स्वः) सुख को (स्तभितम्) धारण, और (येन) जिस ईश्वर ने (नाकः) दुःखरहित मोक्ष को धारण किया है, (यः) जो (अन्तरिक्षे) आकाश में (रजसः) सब लोकलोकान्तरों को (विमानः) विशेष मानयुक्त अर्थात् जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं, वैसे सब लोकों का निर्माण करता और भ्रमण कराता है, हम लोग उस (कस्मै) सुखदायक (देवाय) कामना करने के योग्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिये (हविषा) सब सामर्थ्य से (विधेम) विशेष भक्ति करें॥5॥

तारे रवि चन्द्रादिक रचकर निज प्रकाश चमकाया है ।

धरणी को धारण कर तूने कौशल अलख लखाया है ।।

तू ही विश्व विधाता पोषक, तेरा ही हम ध्यान करें ।

शुद्ध भाव से भगवन् तेरे भजनामृत का पान करें ।।

प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।

यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नोऽअस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥6॥

                                                  —ऋ॰ म॰ 10। सू॰ 121। म॰ 10॥

अर्थ—हे (प्रजापते) सब प्रजा के स्वामी परमात्मा ! (त्वत्) आप से (अन्यः) भिन्न दूसरा कोई (ता) उन (एतानि) इन (विश्वा) सब (जातानि) उत्पन्न हुए जड़ चेतनादिकों को (न) नहीं (परि बभूव) तिरस्कार करता है, अर्थात् आप सर्वोपरि हैं। (यत्कामाः) जिस-जिस पदार्थ की कामनावाले हम लोग (ते) आपका (जुहुमः) आश्रय लेवें और वाञ्छा करें, (तत्) उस-उस की कामना (नः) हमारी सिद्ध (अस्तु) होवे। जिस से (वयम्) हम लोग (रयीणाम्) धनैश्वर्यों के (पतयः) स्वामी (स्याम) होवें॥6॥

तुझसे भिन्न न कोई जग में, सब में तू ही समाया है।

जड़-चेतन सब तेरी रचना तुझमें आश्रय पाया है।।

हे सर्वोपरि विभो विश्व का, तूने साज सजाया है ।

हेतु रहित अनुराग दीजिए, यही भक्त को भाया है ।।

स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।

यत्र    देवाऽ अमृतमानशानास्तृतीये  धामन्नध्यैरयन्त ॥7॥

                                        —यजु॰ अ॰ 32। मं॰ 10॥

अर्थ—हे मनुष्यो! (सः) वह परमात्मा (नः) अपने लोगों का (बन्धुः) भ्राता के समान सुखदायक, (जनिता) सकल जगत् का उत्पादक, (सः) वह (विधाता) सब कामों का पूर्ण करनेहारा, (विश्वा) सम्पूर्ण (भुवनानि) लोकमात्र और (धामानि) नाम, स्थान, जन्मों को (वेद) जानता है। और (यत्र) जिस (तृतीये) सांसारिक सुखदुःख से रहित, नित्यानन्दयुक्त (धामन्) मोक्षस्वरूप, धारण करनेहारे परमात्मा में (अमृतम्) मोक्ष को (आनशानाः) प्राप्त होके (देवाः) विद्वान् लोग (अध्यैरयन्त) स्वेच्छापूर्वक विचरते हैं, वही परमात्मा अपना गुरु आचार्य राजा और न्यायाधीश है। अपने लोग मिलके सदा उस की भक्ति किया करें॥7॥

तू गुरू है प्रजेश भी तू है, पाप-पुण्य फल दाता है।

तू ही सखा बन्धु मम तू ही, तुझसे ही सब नाता है ।।

भक्तों को भव बन्धन से, तू ही मुक्त कराता है ।

तू है अज अद्वैत महाप्रभु, सर्वकाल का ज्ञाता है ।।

अग्ने नय सुपथा रायेऽ अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नमऽउक्तिं विधेम ॥8॥

                                                 —यजुः अ॰ 40। मं॰ 16

अर्थ—हे (अग्ने) स्वप्रकाश, ज्ञानस्वरूप, सब जगत् के प्रकाश करनेहारे, (देव) सकल सुखदाता परमेश्वर ! आप जिस से (विद्वान्)सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं, कृपा करके (अस्मान्) हम लोगों को (राये) विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये (सुपथा) अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से (विश्वानि) सम्पूर्ण (वयुनानि) प्रज्ञान और उत्तम कर्म (नय) प्राप्त कराइये। और (अस्मत्) हम से (जुहुराणम्) कुटिलतायुक्त (एनः) पापरूप कर्म को (युयोधि) दूर कीजिये। इस कारण हम लोग (ते) आपकी (भूयिष्ठाम्) बहुत प्रकार की स्तुतिरूप (नमः उक्तिम्) नम्रतापूर्वक प्रशंसा (विधेम) सदा किया करें, और सर्वदा आनन्द में रहें॥8॥

तू है स्वयं प्रकाशरूप प्रभु सबका सिरजनहार तू ही।

रसना निशदिन रटे तुम्हीं को मन में बसना सदा तू ही ।।

अर्थ-अनर्थ से हमें बचाते रहना हरदम दयानिधान ।

अपने भक्तजनों को भगवान् दीजे यही विशद वरदान ।।

॥ इतीश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासनाप्रकरणम्॥

-:   अथ स्वस्तिवाचनम्   :-

‘सु + अस्ति’ इन दो पदों के योग से समस्त पद ‘स्वस्ति’ बनता है जिसका भाव है – ‘ऐसा कर्म जिसमें सब कुछ अच्छा ही अच्छा हो, शोभन ही शोभन हो।’ अर्थात् स्वस्ति का अर्थ है – सुख, मङ्गल,कल्याण और वाचन का अर्थ है – पाठ या उच्चारण। स्वस्तिवाचन = कल्याण या मङ्गल की प्रार्थना करने के लिए मन्त्रों का उच्चारण करना। 

ओ३म् अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्।

होतारं रत्नधातमम्॥1॥

स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव।

सचस्वा नः स्वस्तये॥2॥   

—ऋ॰म॰ 1। सू॰ 1। मं॰ 1, 9।

स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भगः स्वस्ति देव्यदितिरनर्वणः।

स्वस्ति पूषा असुरो दधातु नः स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतुना॥3॥

स्वस्तये वायुमुप ब्रवामहै सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः।

बृहस्पतिं सर्वगणं स्वस्तये स्वस्तय आदित्यासो भवन्तु नः॥4॥

विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्निः स्वस्तये।

देवा अवन्त्वृभवः स्वस्तये स्वस्ति नो रुद्रः पात्वंहसः॥5॥

स्वस्ति मित्रावरुणा    स्वस्ति पथ्ये  रेवति।

स्वस्ति न इन्द्रश्चाग्निश्च स्वस्ति नो अदिते कृधि॥6॥

स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव।

पुनर्ददताघ्नता जानता सं     गमेमहि॥7॥

—ऋ॰ मं॰ 5। सू॰ 51।11-15॥

ये देवानां यज्ञिया यज्ञियानां मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञाः।

ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः॥8॥

—ऋ॰ मं॰ 7। सू॰ 35।65॥

येभ्यो माता मधुमत् पिन्वते पयः पीयूषं द्यौरदितिरद्रिबर्हाः।

उक्थशुष्मान् वृषभरान्त्स्वप्नसस्ताँ आदित्याँ अनु मदा स्वस्तये॥9॥

नृचक्षसो अनिमिषन्तो अर्हणा बृहद् देवासो अमृतत्वमानशुः।

ज्योतीरथा अहिमाया अनागसो दिवो वर्ष्माणं वसते स्वस्तये॥10॥

सम्राजो ये सुवृधो यज्ञमाययुरपरिह्वृता दधिरे दिवि क्षयम्।

ताँ आ विवास नमसा सुवृक्तिभिर्महो आदित्याँ अदितिं स्वस्तये॥11॥

को वः स्तोमं राधति यं जुजोषथ विश्वे देवासो मनुषो यति ष्ठन।

को वोऽध्वरं तुविजाता अरं करद्यो नः पर्षदत्यंहः स्वस्तये॥12॥

येभ्यो होत्रां प्रथमामायेजे मनुः समिद्धाग्निर्मनसा सप्त होतृभिः।

त आदित्या अभयं शर्म यच्छत सुगा नः कर्त सुपथा स्वस्तये॥13॥

य ईशिरे भुवनस्य प्रचेतसो विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च मन्तवः।

ते नः कृतादकृतादेनसस्पर्यद्या देवासः पिपृता स्वस्तये॥14॥

भरेष्विन्द्रं सुहवं हवामहेंऽहोमुचं सुकृतं दैव्यं जनम्।

अग्निं मित्रं वरुणं सातये भगं द्यावापृथिवी मरुतः स्वस्तये॥15॥

सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसं सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्।

दैवी नावं स्वरित्रामनागसमस्रवन्तीमा रुहेमा स्वस्तये॥16॥

विश्वे यजत्रा अधि वोचतोतये त्रायध्वं नो दुरेवाया अभिह्रुतः।

सत्यया वो देवहूत्या हुवेम शृण्वतो देवा अवसे स्वस्तये॥17॥

अपामीवामप विश्वामनाहुतिमपारातिं दुर्विदत्रामघायतः।

आरे देवा द्वेषो अस्मद् युयोतनोरु णः शर्म यच्छता स्वस्तये॥18॥

अरिष्टः स मर्त्तो विश्व एधते प्र प्रजाभिर्जायते धर्मणस्परि।

यमादित्यासो नयथा सुनीतिभिरति विश्वानि दुरिता स्वस्तये॥19॥

यं देवासोऽवथ वाजसातौ यं शूरसाता मरुतो हिते धने।

प्रातर्यावाण रथमिन्द्र सानसिमरिष्यन्तमा रुहेमा स्वस्तये॥20॥

स्वस्ति नः पथ्यासु धन्वसु स्वस्त्य१प्सु वृजने स्वर्वति।

स्वस्ति नः पुत्रकृथेषु योनिषु स्वस्ति राये मरुतो दधातन॥21॥

स्वस्तिरिद्धि प्रपथे श्रेष्ठा रेक्णस्वस्त्यभि या वाममेति।

सा नो अमा सो अरणे नि पातु स्वावेशा भवतु देवगोपा॥22॥

—ऋ॰ मं॰ 10। सू॰ 63॥ [मं॰ 3-16]

इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वमघ्न्याऽ इन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्ष्मा मा व स्तेनऽ ईशत माघशंसो ध्रुवाऽ अस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि॥23॥

—यजु॰ अ॰ 1। मं॰ 1

आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासोऽअपरीतासऽउद्भिदः।

देवा नो यथा सदमिद्वृधेऽ असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे॥24॥

देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवानां रातिरभि नो निवर्तताम्।

देवानां सख्यमुपसेदिमा वयं देवा नऽआयुः प्रतिरन्तु जीवसे॥25॥

तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम्।

पूषा नो यथा वेदसामसद्वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये॥26॥

स्वस्ति नऽ इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।

स्वस्ति नस्तार्क्ष्योऽ अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥27॥

भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।

स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः॥28॥

—यजु॰ अ॰ 25। मं॰ 14, 15, 18, 19, 21॥

अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये। नि होता सत्सि बर्हिषि॥29॥

त्वमग्ने यज्ञानां होता विश्वेषां हितः। देवेभिर्मानुषे जने॥30॥

—साम॰ पूर्वा॰ प्रपा॰ 1। मं॰ 1, 2॥

ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः।

वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु मे॥31॥

—अथर्व॰ कां॰ 1। सू॰ 1। मं॰ 1॥

॥ इति स्वस्तिवाचनम्॥

-:   अथ शान्तिकरणम्   :-

‘शमु-उपशमे’ धातु से क्तिन् प्रत्यय लगने पर ‘शान्ति’ पद सिद्ध होता है, जिसके अर्थ हैं – सुख, मानसिक सुख, निरुपद्रवता, सन्ताप की निवृत्ति । शान्तिकरण के मन्त्रों में परमात्मा से प्रार्थना-कामना की गयी है कि ब्रह्माण्ड के समस्त पदार्थ अथवा दिव्य शक्तियाँ हमारे लिए सुख-शान्तिकारी होवें।

ओ३म् शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शं न इन्द्रावरुणा रातहव्या।

शमिन्द्रासोमा सुविताय शं योः शं न इन्द्रापूषणा वाजसातौ॥1॥

शं नो भगः शमु नः शंसो अस्तु शं नः पुरन्धिः शमु सन्तु रायः।

शं नः सत्यस्य सुयमस्य शंसः शं नो अर्यमा पुरुजातो अस्तु॥2॥

शं नो धाता शमु धर्त्ता नो अस्तु शं न उरूची भवतु स्वधाभिः।

शं रोदसी बृहती शं नो अद्रिः शं नो देवानां सुहवानि सन्तु॥3॥

शं नो अग्निर्ज्योतिरनीको अस्तु शं नो मित्रावरुणावश्विना शम्।

शं नः सुकृतां सुकृतानि सन्तु शं न इषिरो अभि वातुवातः॥4॥

शं नो द्यावापृथिवी पूर्वहूतौ शमन्तरिक्षं दृशये नो अस्तु।

शं न ओषधीर्वनिनो भवन्तु शं नो रजसस्पतिरस्तु जिष्णुः॥5॥

शं न इन्द्रो वसुभिर्देवो अस्तु शमादित्येभिर्वरुणः सुशंसः।

शं नो रुद्रो रुद्रेभिर्जलाषः शं नस्त्वष्टा ग्नाभिरिह शृणोतु॥6॥

शं नः सोमो भवतु ब्रह्म शं नः शं नो ग्रावाणः शमु सन्तु यज्ञाः।

शं नः स्वरूणां मितयो भवन्तु शं नः प्रस्वः१ शम्वस्तु वेदिः॥7॥

शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु शं नश्चतस्रः प्रदिशो भवन्तु।

शं नः पर्वता ध्रुवयो भवन्तु शं नः सिन्धवः शमु सन्त्वापः॥8॥

शं नो अदितिर्भवतु व्रतेभिः शं नो भवन्तु मरुतः स्वर्काः।

शं नो विष्णुः शमु पूषा नो अस्तु शं नो भवित्रं शम्वस्तु वायुः॥9॥

शं नो देवः सविता त्रायमाणः शं नो भवन्तूषसो विभातीः।

शं नः पर्जन्यो भवतु प्रजाभ्यः शं नः क्षेत्रस्य पतिरस्तु शम्भुः॥10॥

शं नो देवा विश्वदेवा भवन्तु शं सरस्वती सह धीभिरस्तु।

शमभिषाचः शमु रातिषाचः शं नो दिव्याः पार्थिवाः शं नो अप्याः॥11॥

शं नः सत्यस्य पतयो भवन्तु शं नो अर्वन्तः शमु सन्तु गावः।

शं न ऋभवः सुकृतः सुहस्ताः शं नो भवन्तु पितरो हवेषु॥12॥

शं नो अज एकपाद् देवो अस्तु शं नोऽहिर्बुध्न्यः१ शं समुद्रः।

शं नो अपां नपात् पेरुरस्तु शं नः पृश्निर्भवतु देवगोपा॥13॥

—ऋ॰मं॰ 7। सू॰ 35। मं॰ 1-13

इन्द्रो विश्वस्य राजति। शन्नोऽअस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे॥14॥

शन्नो वातः पवतां शन्नस्तपतु सूर्य्यः। 

शन्नः कनिक्रदद्देवः पर्जन्योऽअभि वर्षतु॥15॥

अहानि शम्भवन्तु नः शं रात्रीः प्रति धीयताम्।

शन्न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शन्नऽइन्द्रावरुणा रातहव्या।

शन्न इन्द्रापूषणा वाजसातौ शमिन्द्रासोमा सुविताय शं योः॥16॥

शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये। शंयोरभिस्रवन्तु नः॥17॥

द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥18॥

तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्॥19॥

—यजुः॰ अ॰ 36। मं॰ 8, 10-12, 17, 24॥

यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।

दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥20॥

येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।

यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥21॥

यत् प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।

यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥22॥

येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्।

येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥23॥

यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन्प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।

यस्मिँचित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥24

सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव।

हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥25॥

—यजुः॰ अ॰ 34। मं॰ 1-6॥

स नः पवस्व शं गवे शं जनाय शमर्वते।

शं राजन्नोषधीभ्यः॥26॥       

 —साम॰ उत्तरा॰ प्रपा॰ 1। मं॰ 3॥

अभयं नः करत्यन्तरिक्षमभयं द्यावापृथिवी उभे इमे।

अभयं पश्चादभयं पुरस्तादुत्तरादधरादभयं नो अस्तु॥27॥

अभयं  मित्रादभयममित्रादभयं       ज्ञातादभयं    परोक्षात्।

अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु॥28॥

—अथर्व॰ कां॰ 19।15।5, 6

॥ इति शान्तिकरणम्॥

-:     अग्न्याधानम्    :-

पूर्वोक्त समिधाचयन वेदी में करें। पुनः—

ओ३म् भूर्भुवः स्वः

( गोभिल गृ० प्र० १, ख० १, सू० ११ )

इस मन्त्र का उच्चारण करके ब्राह्मण क्षत्रिय वा वैश्य के घर से अग्नि ला, अथवा घृत का दीपक जला, उस से कपूर में लगा, किसी एक पात्र में धर, उस में छोटी-छोटी लकड़ी लगाके यजमान वा पुरोहित उस पात्र को दोनों हाथों से उठा, यदि गर्म हो तो चिमटे से पकड़कर अगले मन्त्र से अग्न्याधान करे। वह मन्त्र यह है—

अग्न्याधान – ( अग्नि+आ+धान ) अग्नि पद से परमेश्वर, भौतिक अग्नि तथा सूर्य का भी वर्णन किया जाता है। उस अग्नि का आ-पूरी तरह से सब ओर से विधि विधान से आधान अर्थात् धारण करना या स्थापित करना।

ओ३म् भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा।

तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे॥

( यजु० अ० ३ मं० ५ )

इस मन्त्र से वेदी के बीच में अग्नि को धर, उस पर छोटे-छोटे काष्ठ और थोड़ा कपूर धर, अगला मन्त्र पढ़के व्यजन से अग्नि को प्रदीप्त करे—

ओ३म् उद्बुध्यस्वाग्ने प्रतिजागृहि त्वमिष्टापूर्त्ते सं सृजेथामयं च।

अस्मिन्त्सधस्थेऽअध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत॥

( यजु० अ० १५। मं० ५४ )

जब अग्नि समिधाओं में प्रविष्ट होने लगे, तब चन्दन की अथवा ऊपरलिखित पलाशादि की तीन लकड़ी आठ-आठ अंगुल की घृत में डुबा, उन में से एक-एक निकाल नीचे लिखे एक-एक मन्त्र से एक-एक समिधा को अग्नि में चढ़ावें। वे मन्त्र ये हैं—

-:   समिदाधानम्   :-

ओ३म् अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा॥ इदमग्नये जातवेदसे इदं न मम॥1॥  

( आश्वलायन गृ० १/१०/१२ )    

 —इस मन्त्र से एक

ओ३म् समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्।

आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा॥ इदमग्नये इदं न मम॥2॥

—इस से, और

सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन।

अग्नये जातवेदसे स्वाहा॥ इदमग्नये जातवेदसे इदं न मम॥3॥

—इस मन्त्र से अर्थात् इन दोनों से दूसरी।

ओ३म् तन्त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्धयामसि।

बृहच्छोचा यविष्ठ्य स्वाहा॥ इदमग्नयेऽङ्गिरसे इदं न मम॥4॥

( यजु० अ० ३, मन्त्र १,२,३ )

इस मन्त्र से तीसरी समिधा की आहुति देवें।

इन मन्त्रों से समिदाधान करके होम का शाकल्य, जो कि यथावत् विधि से बनाया हो, सुवर्ण, चांदी, कांसा आदि धातु के पात्र अथवा काष्ठ-पात्र में वेदी के पास सुरक्षित धरें। पश्चात् उपरिलिखित घृतादि जो कि उष्ण कर छान, पूर्वोक्त सुगन्ध्यादि पदार्थ मिलाकर पात्रों में रखा हो, उसमें से कम से कम 6 मासा भर घृत वा अन्य मोहनभोगादि जो कुछ सामग्री हो, अधिक से अधिक छटांक भर की आहुति देवें, यही आहुति का प्रमाण है।

उस घृत में से चमसा कि जिस में छः मासा ही घृत आवे ऐसा बनाया हो, भरके नीचे लिखे मन्त्र से पांच आहुति देनी—

ओ३म् अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा॥ इदमग्नये जातवेदसे इदन्न 

( आश्वलायन गृ० १/१०/१२ )    

-:   जल प्रोक्षणम्    :-

तत्पश्चात् वेदी के पूर्व दिशा आदि और अञ्जलि में जल लेके चारों ओर छिड़कावे। उसके ये मन्त्र हैं—

ओ३म् अदितेऽनुमन्यस्व॥                 —इस मन्त्र से पूर्व।

ओ३म् अनुमतेऽनुमन्यस्व॥                —इस से पश्चिम।

ओ३म् सरस्वत्यनुमन्यस्व॥                —इस से उत्तर। और—

ओ३म् देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय। दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु॥   

           —यजुः अ॰ 30। मं॰ 1

इस मन्त्र से वेदी के चारों ओर जल छिड़कावे।

इसके पश्चात् सामान्यहोमाहुति गर्भाधानादि प्रधान संस्कारों में अवश्य करें। इस में मुख्य होम के आदि और अन्त में जो आहुति दी जाती हैं, उन में से यज्ञकुण्ड के उत्तर भाग में जो एक आहुति, और यज्ञकुण्ड के दक्षिण भाग में दूसरी आहुति देनी होती है, उस का नाम “आघारावाज्याहुति” कहते हैं। और जो कुण्ड के मध्य में आहुतियां दी जाती हैं, उन का नाम “आज्यभागाहुति” कहते हैं। सो घृतपात्र में से स्रुवा को भर अंगूठा, मध्यमा, अनामिका से स्रुवा को पकड़के—

-:   आघारावाज्यभागाहुतयः   :-   

शुद्ध किये हुए सुगन्ध्यादि युक्त घी को तपा के पात्र में लेके घृतपात्र में से स्रुवा को भर अंगूठा, मध्यमा, अनामिका से स्रुवा को पकड़के निम्न मन्त्रों से घृत की आहुति दें। 

ओ३म् अग्नये स्वाहा | इदमग्नये – इदन्न मम।। इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में आहुति देवें।

ओ३म् सोमाय स्वाहा | इदं सोमाय – इदन्न मम।। इस मन्त्र से वेदी के दक्षिण भाग अग्नि में आहुति देवें।

तत्पश्चात्

ओ३म् प्रजापतये स्वाहा | इदं प्रजापतये – इदन्न मम।।

ओ३म् इन्द्राय स्वाहा | इदं इन्द्राय –  इदन्न मम।। इन दोनों मन्त्रों से वेदी के मध्य भाग में दो आहुति देवें।

-:   प्रातःकालीनहोममन्त्रा:   :-

निम्न मन्त्रों से घृत  के साथ साथ सामग्री की भी आहुतियां देवें। 

ओ३म् सूर्यो  ज्योतिर्ज्योति: सूर्य: स्वाहा।।१।।

ओ३म् सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्च: स्वाहा।।२।।

ओ३म् ज्योतिः सूर्य: सुर्यो ज्योति: स्वाहा।।३।।

ओ३म् सजूर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्रवत्या। जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा।।४।।

ओ३म् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।।१।।

ओ३म् भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा। इदं वायवेऽपानाय – इदन्न मम।।२।।

ओ३म् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा। इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।।३।।

ओ३म् भूर्भुवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।

इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः – इदन्न मम।।४।।

ओ३म् आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।।५।।

ओ३म् यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते। तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।।६।।

ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद्  भद्रं तन्न आ सुव ।।७।।

ओ३म् अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् ।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम ।।८।।

-:   आघारावाज्यभागाहुतयः   :- 

प्रातः कालीन आहुतियों के बाद पुनः आघारावाज्यभागाहुती देवें 

ओ३म् अग्नये स्वाहा | इदमग्नये – इदन्न मम।। इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में आहुति देवें।

ओ३म् सोमाय स्वाहा | इदं सोमाय – इदन्न मम।। इस मन्त्र से वेदी के दक्षिण भाग अग्नि में आहुति देवें। तत्पश्चात्

ओ३म् प्रजापतये स्वाहा | इदं प्रजापतये – इदन्न मम।।

ओ३म् इन्द्राय स्वाहा | इदं इन्द्राय –  इदन्न मम।। इन दोनों मन्त्रों से वेदी के मध्य भाग में दो आहुति देवें।

-:   सायं कालीनहोममन्त्रा:   :-

निम्न मन्त्रों से सायं कालीन अग्निहोत्र करें। इन मन्त्रों से घृत के साथ साथ सामग्री की भी आहुतियां देवें। 

ओ३म् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा।।१।।

ओ३म् अग्निवर्चो ज्योतिर्वच: स्वाहा।।२।।

ओ३म् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा।।३।।इस मन्त्र को मन में उच्चारण करके आहुति देवें

ओ३म् सजूर्देवेन सवित्रा सजु रात्र्येन्द्रवत्या। जुषाणो अग्निर्वेतु स्वाहा।।४।।

 ओ३म् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।।१।।

ओ३म् भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा। इदं वायवेऽपानाय – इदन्न मम।।२।।

ओ३म् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा। इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।।३।।

ओ३म् भूर्भुवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।

इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः – इदन्न मम।।४।।

ओ३म् आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।।५।।

ओ३म् यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते। तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।।६।।

ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद्  भद्रं तन्न आ सुव ।।७।।

ओ३म् अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् ।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम ।।८।।

श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी की विशेष आहुतियाँ

(१) ओ३म् तेजोऽसि तेजो मयि धेहि स्वाहा।

        (२) ओ३म् वीर्यमसि वीर्यं मयि धेहि स्वाहा।

        (३) ओ३म् बलमसि बलं मयि धेहि स्वाहा।

        (४) ओ३म् आजोऽस्योजो मयि धेहि स्वाहा।

        (५) ओ३म् मन्युरसि मन्युं मयि धेहि स्वाहा।

        (६) ओ३म् सहोऽसि सहो मयि धेहि स्वाहा।

(पश्चात्‌ विशेष होम करने ले लिए पुनः आघारावाज्यभागाहुती देवें)

ओम् अग्नये स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥

इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में।

ओं सोमाय स्वाहा॥ इदं सोमाय इदं न मम॥

इस मन्त्र से वेदी के दक्षिण भाग में प्रज्वलित समिधा पर आहुति देनी। तत्पश्चात्—

ओं प्रजापतये स्वाहा॥ इदं प्रजापतये इदन्न मम॥

ओम् इन्द्राय स्वाहा॥ इदमिन्द्राय इदन्न मम॥

इन दोनों मन्त्रों से वेदी के मध्य में दो आहुति देनी।

उसके पश्चात् व्याहृति की चार आहुति देवें—

ओं भूरग्नये स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥

ओं भुवर्वायवे स्वाहा॥ इदं वायवे इदन्न मम॥

ओं स्वरादित्याय स्वाहा॥ इदमादित्याय इदन्न मम॥

ओं भूर्भुवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः स्वाहा॥ इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः इदं न मम॥

ये चार घी की आहुति देकर स्विष्टकृत् होमाहुति एक ही है, यह घृत की अथवा भात की देनी चाहिये। उस का मन्त्र—

ओं यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम्। अग्निष्टत्स्विष्टकृद्विद्यात् सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे। अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्द्धय स्वाहा॥ इदमग्नये स्विष्टकृते इदं न मम॥

इस से एक आहुति करके, प्राजापत्याहुति करें। नीचे लिखे मन्त्र की मन में बोलके देनी चाहिए—

ओं प्रजापतये स्वाहा॥ इदं प्रजापतये इदं न मम॥

इस से मौन करके एक आहुति देकर चार आज्याहुति घृत की देवें।

परन्तु जो नीचे लिखी आहुति चौल, समावर्त्तन और विवाह में मुख्य हैं। वे चार मन्त्र ये हैं—

ओं भूर्भुवः स्वः। अग्न आयुंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः।

आरे बाधस्व दुच्छुनां स्वाहा॥ इदमग्नये पवमानाय इदन्न मम॥1॥

ओं भूर्भुवः स्वः। अग्निर्ऋषिः पवमानः पाञ्चजन्यः पुरोहितः।

तमीमहे महागयं स्वाहा॥ इदमग्नये पवमानाय इदन्न मम॥2॥

ओं भूर्भुवः स्वः। अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वर्चः सुवीर्यम्।

दधद्रयिं मयि पोषं स्वाहा॥ इदमग्नये पवमानाय इदन्न मम॥3॥

—ऋ॰ मं॰ 9। सू॰ 66। मं॰ 19-21॥

ओं भूर्भुवः स्वः। प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणां स्वाहा॥

इदं प्रजापतये इदन्न मम॥4॥    

—ऋ॰ मं॰ 10। सू॰ 121। मं॰ 10॥

इन से घृत की 4 चार आहुति करके “अष्टाज्याहुति” के निम्नलिखित मन्त्रों से सर्वत्र मङ्गल-कार्यों में 8 आठ आहुति देवें, परन्तु किस-किस संस्कार में कहां-कहां देनी चाहियें, यह विशेष बात उस-उस संस्कार में लिखेंगे। वे आठ आहुति-मन्त्र ये हैं—

ओं त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेळोऽव यासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषांसि प्र मुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा॥ इदमग्नीवरुणाभ्याम् इदं न मम॥1॥

ओं स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ। अव यक्ष्व नो वरुणं रराणो वीहि मृळीकं सुहवो न एधि स्वाहा॥ इदमग्नीवरुणाभ्याम् इदं न मम॥2॥ 

—ऋ॰ मं॰ 4। सू॰ 1। मं॰ 4, 5॥

ओम् इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय।

त्वामवस्युराचके स्वाहा॥ इदं वरुणाय इदं न मम॥3॥      

—ऋ॰ मं॰ 1। सू॰ 25। मं॰ 19॥

ओं तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः। अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः स्वाहा॥

इदं वरुणाय इदं न मम॥4॥          

—ऋ॰ मं॰ 1। सू॰ 24। मं॰ 11॥

ओं ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः।  तेभिर्नो अद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्क्काः स्वाहा॥ इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्क्केभ्यः इदं न मम॥5॥

ओम् अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमयाऽसि।

अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषजं स्वाहा॥

इदमग्नये अयसे इदं न मम॥6॥

ओम् उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय।

अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा॥

इदं वरुणायाऽऽदित्यायादितये च इदं न मम॥7॥

—ऋ॰ मं॰ 1। सू॰ 24। मं॰ 15॥

ओं भवतन्नः समनसौ सचेतसावरेपसौ।

मा यज्ञं हिंसिष्टं मा यज्ञपतिं

जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः स्वाहा।

इदं जातवेदोभ्याम् इदं न मम॥8॥        

—यजुः अ॰ 5। मं॰ 3॥

सब   संस्कारों में मधुर स्वर से मन्त्रोच्चारण यजमान ही करे। न शीघ्र न विलम्ब से उच्चारण करे, किन्तु मध्य भाग जैसा कि जिस वेद का उच्चारण है, करे। यदि यजमान न पढ़ा हो तो इतने मन्त्र तो अवश्य पढ़ लेवे। यदि कोई कार्यकर्त्ता जड़ मन्दमति काला अक्षर भैंस बराबर जानता हो तो वह शूद्र है। अर्थात् शूद्र मन्त्रोच्चारण में असमर्थ हो तो पुरोहित और ऋत्विज् मन्त्रोच्चारण करें, और कर्म उसी मूढ़ यजमान के हाथ से करावें।

पुनः निम्नलिखित मन्त्र से पूर्णाहुति करें। स्रुवा को घृत से भरके—

ओं सर्वं वै पूर्णं स्वाहा॥

इस मन्त्र से एक आहुति देवें। ऐसे दूसरी और तीसरी आहुति देके, जिस को दक्षिणा देनी हो देवें, वा जिस को जिमाना हो जिमा, दक्षिणा देके सब को विदाकर स्त्रीपुरुष हुतशेष घृत, भात वा मोहनभोग को प्रथम जीमके पश्चात् रुचिपूर्वक उत्तमान्न का भोजन करें।

मङ्गलकार्य अर्थात् गर्भाधानादि संन्यास-संस्कार पर्यन्त पूर्वोक्त और निम्नलिखित सामवेदोक्त वामदेव्यगान अवश्य करें। वे मन्त्र ये हैं—

ओं भूर्भुवः स्वः। कया नश्चित्र आ भुवदूती सदावृधः सखा।

कया शचिष्ठया वृता॥1॥

ओं भूर्भुवः स्वः। कस्त्वा सत्यो मदानां मंहिष्ठो मत्सदन्धसः। दृढ़ा चिदारुजे वसु॥2॥

ओं भूर्भुवः स्वः। अभी षु णः सखीनामविता जरितॄणाम्।

शतं भवास्यूतये॥3॥

महावामदेव्यम्

काऽ५या। नश्चा३ यित्रा३ आभुवात्। ऊ। ती सदावृधः। सखा। औ३ होहायि। कया२३ शचायि। ष्ठयौहो३। हुम्मा२। वाऽ२र्तो३ऽ५हायि॥ (1)॥

काऽ५स्त्वा। सत्यो३मा३दानाम्। मा। हिष्ठोमात्सादन्ध। सा औ३हो हायि। दृढा २ ३ चिदा। रुजौहो३। हुम्मा२। वाऽ३सो ३ ऽ ५ हायि॥ (2)॥

आऽ५भी। षुणाः३ सा३खीनाम्। आ। विता जरायि तॄ। णाम्। औ २ ३ हो हायि। शता२३म्भवा। सियौहो३ हुम्मा२। ताऽ२ यो३ऽ५हायि॥ (3)॥

—साम॰ उत्तरार्चिके। अध्याये 1। खं॰ 3। मं॰ 1, 2, 3॥

यह महावामदेव्यगान होने के पश्चात् गृहस्थ स्त्रीपुरुष कार्यकर्त्ता सद्धर्मी लोकप्रिय परोपकारी सज्जन विद्वान् वा त्यागी पक्षपात रहित संन्यासी, जो सदा विद्या की वृद्धि और सब के कल्याणार्थ वर्तनेवाले हों उनको नमस्कार, आसन, अन्न, जल, वस्त्र, पात्र, धन आदि के दान से उत्तम प्रकार से यथासामर्थ्य सत्कार करें। पश्चात् जो कोई देखने ही के लिये आये हों, उन को भी सत्कारपूर्वक विदा कर दें। अथवा जो संस्कार-क्रिया को देखना चाहें, वे पृथक्-पृथक् मौन करके बैठे रहें, कोई बातचीत हल्ला-गुल्ला न करने पावें। सब लोग ध्यानावस्थित प्रसन्नवदन रहें। विशेष कर्मकर्त्ता और कर्म करानेवाले शान्ति धीरज और विचारपूर्वक क्रम से कर्म करें और करावें।

 प्रार्थना 

यज्ञरूप प्रभो हमारे भाव उज्ज्वल कीजिए।

छोड़ देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिये।।

वेद की बोले ऋचाएं सत्य को धारण करें।

हर्ष में हो मग्न सारे शोक सागर से तरें।।

अश्वमेधादिक रचाएं यज्ञ पर उपकार को।

धर्म मर्यादा चलाकर लाभ दें संसार को।।

नित्य श्रद्धा भक्ति से यज्ञादि हम करते रहें।

रोग पीड़ित विश्व के संताप सब हरते रहें।।

भावना मिट जाए मन से पाप अत्याचार की।

कामनाएं पूर्ण होवें यज्ञ से नर-नार की।।

लाभकारी हो हवन हर जीवधारी के लिए।

वायु जल सर्वत्र हों शुभ गन्ध को धारण किये।।

स्वार्थ भाव मिटे हमारा प्रेम पथ विस्तार हो।

इदन्नमम का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हो।।

ध्यान धरकर शुद्ध मन से वन्दना हम कर रहे।

‘नाथ’ करुणा रूप करुणा आपकी सब पर रहे।।

वैदिक विनय

सर्वे भवन्तु सुखिनः

सर्वे सन्तु निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु

मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥

हे नाथ सब सुखी हों कोई न हो दुखारी ।

सब हो निरोग भगवन धन धान्य के भंडारी ।।

सब भद्र भाव देखें सन्मार्ग के पथिक  हों ।

दुखिया न कोई होवे सृष्टि में प्राण धारी।।

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