अथ शालाकर्मविधिं वक्ष्यामः
‘शाला’ उस को कहते हैं—जो मनुष्य और पश्वादि के रहने अथवा पदार्थ रखने के अर्थ गृह वा स्थानविशेष बनाते हैं। इस के दो विषय हैं-एक प्रमाण और दूसरा विधि। उस में से प्रथम प्रमाण और पश्चात् विधि लिखेंगे।
अत्र प्रमाणानि—
उपमितां प्रतिमितामथो परिमिताम् उत। शालाया विश्ववाराया नद्धानि वि चृतामसि॥1॥
हविर्धानमग्निशालं पत्नीनां सदनं सदः। सदो देवानामसि देवि शाले॥2॥
अर्थ—मनुष्यों को योग्य है कि जो कोई किसी प्रकार का घर बनावें तो वह (उपमिताम्) सब प्रकार की उत्तम उपमायुक्त कि जिस को देखके विद्वान् लोग सराहना करें। (प्रतिमिताम्) प्रतिमान अर्थात् एक द्वार के सामने दूसरा द्वार कोणे और कक्षा भी सम्मुख हों। (अथो) इस के अनन्तर (परिमिताम्) वह शाला चारों ओर की परिमाण से समचौरस हो। (उत) और (शालायाः) शाला (विश्ववारायाः) अर्थात् उस घर के द्वार चारों ओर के वायु को स्वीकार करनेवाले हों। (नद्धानि) उस के बन्धन और चिनाई दृढ़ हों। हे मनुष्यो ! ऐसी शाला को जैसे हम शिल्पी लोग (विचृतामसि) अच्छे प्रकार ग्रन्थित अर्थात् बन्धनयुक्त करते हैं, वैसे तुम भी करो॥1॥
उस घर में एक (हविर्धानम्) होम करने के पदार्थ रखने का स्थान, (अग्निशालम्) अग्निहोत्र का स्थान, (पत्नीनाम्) स्त्रियों के (सदनम्) रहने का (सदः) स्थान, और (देवानाम्) पुरुषों और विद्वानों के रहने-बैठने, मेल-मिलाप करने और सभा का (सदः) स्थान तथा स्नान, भोजन, ध्यान आदि का भी पृथक्-पृथक् एक-एक घर बनावे। इस प्रकार की (देवि) दिव्य कमनीय (शाले) बनाई हुई शाला (असि) सुखदायक होती है॥2॥
अन्तरा द्यां च पृथिवीं च यद्व्यचस्तेन शालां प्रति गृह्णामि त इमाम्।
यदन्तरिक्षं रजसो विमानं तत् कृण्वेऽहमुदरं शेवधिभ्यः। तेन शालां प्रति गृह्णामि तस्मै॥3॥
ऊर्जस्वती पयस्वती पृथिव्यां निमिता मिता।
विश्वान्नं बिभ्रती शाले मा हिंसीः प्रतिगृह्णतः॥4॥
अर्थः—उस शाला में (अन्तरा) भिन्न-भिन्न (पृथिवीम्) शुद्ध भूमि अर्थात् चारों ओर स्थान शुद्ध हों। (च) और (द्याम्) जिस में सूर्य का प्रतिभास आवे, वैसी प्रकाशस्वरूप भूमि के समान दृढ़ शाला बनावे। (च) और (यत्) जो (व्यचः) उस की व्याप्ति अर्थात् विस्तार हे स्त्रि ! (ते) तेरे लिये है, (तेन) उसी से युक्त (इमाम्) इस (शालाम्) घर को बनाता हूं, तू इस में निवास कर, और मैं भी निवास के लिये इस को (प्रतिगृह्णामि) ग्रहण करता हूं। (यत्) जो उस के बीच में (अन्तरिक्षम्) पुष्कल अवकाश और (रजसः) उस घर का (विमानम्) विशेष मान-परिमाणयुक्त लम्बी ऊंची छत, और (उदरम्) भीतर का प्रसार विस्तारयुक्त होवे, (तत्) उस को (शेवधिभ्यः) सुख के आधाररूप अनेक कक्षाओं से सुशोभित (अहम्) मैं (कृण्वे) करता हूं। (तेन) उस पूर्वोक्त लक्षणमात्र से युक्त (शालाम्) शाला को (तस्मै) उस गृहाश्रम के सब व्यवहारों के लिये (प्रतिगृह्णामि) ग्रहण करता हूं॥3॥
जो (शाले) शाला (ऊर्जस्वती) बहुत बलारोग्य पराक्रम को बढ़ानेवाली, और धन-धान्य से पूरित सम्बन्धवाली, (पयस्वती) जल दूध रसादि से परिपूर्ण, (पृथिव्याम्) पृथिवी में (मिता) परिमाणयुक्त (निमिता) निर्मित की हुई (विश्वान्नम्) सम्पूर्ण अन्नादि ऐश्वर्य को (बिभ्रती) धारण करती हुई (प्रतिगृह्णतः) ग्रहण करनेहारों को रोगादि से (मा हिंसीः) पीड़ित न करे, वैसा घर बनाना चाहिये॥4॥
ब्रह्मणा शालां निमितां कविभिर्निमितां मिताम्।
इन्द्राग्नी रक्षतां शालाममृतौ सोम्यं सदः॥5॥
अर्थः—(अमृतौ) स्वरूप से नाशरहित (इन्द्राग्नी) वायु और पावक, (कविभिः) उत्तम विद्वान् शिल्पियों ने (मिताम्) प्रमाणयुक्त अर्थात् माप में ठीक जैसी चाहिये वैसी (निमिताम्) बनाई हुई (शालाम्) शाला को, और (ब्रह्मणा) चारों वेदों के जाननेहारे विद्वान् ने सब ऋतुओं में सुख देनेहारी (निमिताम्) बनाई (शालाम्) शाला को प्राप्त होकर रहनेवालों को (रक्षताम्) रक्षा करें। अर्थात् चारों ओर का शुद्ध वायु आके अशुद्ध वायु को निकालता रहे, और जिसमें सुगन्ध्यादि घृत का होम किया जाय, वह अग्नि दुर्गन्ध को निकाल सुगन्ध को स्थापन करे। वह (सोम्यम्) ऐश्वर्य आरोग्य सर्वदा सुखदायक (सदः) रहने के लिये उत्तम घर है। उसी को निवास के लिये ग्रहण करे॥5॥
या द्विपक्षा चतुष्पक्षा षट्पक्षा या निमीयते।
अष्टापक्षां दशपक्षां शालां मानस्य पत्नीमग्निर्गर्भ इवाशये॥6॥
अर्थ—हे मनुष्यो ! (या) जो (द्विपक्षा) दो पक्ष अर्थात् मध्य में एक और पूर्व पश्चिम में एक-एक शालायुक्त घर, अथवा (चतुष्पक्षा) जिस के पूर्व पश्चिम दक्षिण और उत्तर में एक-एक शाला, और इन के मध्य में पांचवीं बड़ी शाला, वा (षट्पक्षा) एक बीच में बड़ी शाला और दो-दो पूर्व-पश्चिम तथा एक-एक उत्तर-दक्षिण में शाला हों, या) जो ऐसी शाला (निमीयते) बनाई जाती है, वह उत्तम होती है। और इस से भी जो (अष्टापक्षाम्) चारों ओर दो-दो शाला और उन के बीच में एक नवमी शाला हो, अथवा (दशपक्षाम्) जिस के मध्य में दो शाला और उन के चारों दिशाओं में दो-दो शाला हों, उस (मानस्य) परिमाण के योग से बनाई हुई (शालाम्) शाला को जैसे (पत्नीम्) पत्नी को प्राप्त होके (अग्निः) अग्निमय आर्त्तव और वीर्य (गर्भ इव) गर्भरूप होके (आशये) गर्भाशय में ठहरता है, वैसे सब शालाओं के द्वार दो-दो हाथ पर सूधे बराबर हों॥
और जिस की चारों ओर की शालाओं का परिमाण तीन-तीन गज और मध्य की शालाओं का छह-छह गज से परिमाण न्यून न हो और चार-चार गज चारों दिशाओं की, और आठ-आठ गज मध्य की शालाओं का परिमाण हो, अथवा मध्य की शालाओं का दश-दश गज अर्थात् बीस-बीस हाथ से विस्तार अधिक न हो, बनाकर गृहस्थों को रहना चाहिए। यदि वह सभा का स्थान हो, तो बाहर की ओर द्वारों में चारों ओर कपाट और मध्य में गोल-गोल स्तम्भे बनाकर चारों ओर खुला बनाना चाहिए कि जिस के कपाट खोलने से चारों ओर का वायु उस में आवे। और सब घरों के चारों ओर वायु आने के लिए अवकाश तथा वृक्ष फल और पुष्करणी कुण्ड भी होने चाहियें, वैसे घरों में सब लोग रहें॥6॥
प्रतीचीं त्वा प्रतीचीनः शाले प्रैम्यहिंसतीम्।
अग्निर्ह्य१न्तरापश्च ऋतस्य प्रथमा द्वाः॥7॥
अर्थः—जो (शाले) शालागृह (प्रतीचीनः) पूर्वाभिमुख तथा जो गृह (प्रतीचीम्) पश्चिम द्वारयुक्त, (अहिंसतीम्) हिंसादि दोष रहित, अर्थात् पश्चिम द्वार के सम्मुख पूर्व द्वार, जिस में (हि) निश्चय कर (अन्तः) बीच में (अग्निः) अग्नि का घर (च) और (आपः) जल का स्थान (ऋतस्य) और सत्य के ध्यान के लिये एक स्थान (प्रथमा) प्रथम (द्वाः) द्वार है, मैं (त्वा) उस शाला को (प्रैमि) प्रकर्षता से प्राप्त होता हूं॥7॥
मा नः पाशं प्रति मुचो गुरुर्भारो लघुर्भव।
वधूमिव त्वा शाले यत्र कामं भरामसि॥8॥
—अथर्व॰ कां॰ 9। अ॰ 2। वर्ग 3॥
अर्थः—हे शिल्पि लोगो ! जैसे (नः) हमारी (शाले) शाला अर्थात् गृह (पाशम्) बन्धन को (मा प्रतिमुचः) कभी न छोड़े, जिस में (गुरुर्भारः) बड़ा भार (लघुर्भव) छोटा होवे, वैसी बनाओ। (त्वा) उस शाला को (यत्र कामम्) जहां जैसी कामना हो वहां वैसी हम लोग (वधूमिव) स्त्री के समान (भरामसि) स्वीकार करते हैं, वैसे तुम भी ग्रहण करो॥8॥
इस प्रकार प्रमाणों के अनुसार जब घर बन चुके, तब प्रवेश करते समय क्या-क्या विधि करना, सो नीचे लिखे प्रमाणे जानो—
– अथ विधिः –
जब घर बन चुके, तब उस की शुद्धि अच्छे प्रकार करा, चारों दिशाओं के बाहरले द्वारों में 4 चार वेदी, और एक वेदी घर के मध्य बनावे, अथवा तांबे का वेदी के समान कुण्ड बनवा लेवे कि जिस से सब ठिकाने एक कुण्ड ही में काम हो जावे सब प्रकार की सामग्री अर्थात् पृष्ठ 13-14 में लिखे प्रमाणे समिधा, घृत, चावल, मिष्ट, सुगन्ध, पुष्टिकारक द्रव्यों को लेके शोधन कर प्रथम दिन रख लेवे। जिस दिन गृहपति का चित्त प्रसन्न होवे, उसी शुभ दिन में गृहप्रतिष्ठा करे।
वहां ऋत्विज् होता अध्वर्यु और ब्रह्मा का वरण करे, जो कि धर्मात्मा विद्वान् हों। वे सब वेदी से पश्चिम दिशा में बैठें। उन में से होता का आसन और उस पर वह पूर्वाभिमुख, अध्वर्यु का उत्तर में उस पर दक्षिणाभिमुख, उद्गाता का पूर्व दिशा में आसन उस पर वह पश्चिमाभिमुख और ब्रह्मा का दक्षिण दिशा में उत्तमासन बिछा कर उत्तराभिमुख। इस प्रकार चारों आसनों पर चारों पुरुषों को बैठावे, और गृहपति सर्वत्र पश्चिम में पूर्वाभिमुख बैठा करे। ऐसे ही घर के मध्य वेदी के चारों ओर दूसरे आसन बिछा रक्खे।
पश्चात् निष्क्रम्यद्वार, जिस द्वार से मुख्य करके घर से निकलना और प्रवेश करना होवे, अर्थात् जो मुख्य द्वार हो, उसी द्वार के समीप ब्रह्मा सहित बाहर ठहर कर—
ओम् अच्युताय भौमाय स्वाहा॥
इस से एक आहुति देकर, ध्वजा का स्तम्भ जिस में ध्वजा लगाई हो, खड़ा करे और घर के ऊपर चारों कोणों पर 4 चार ध्वजा खड़ी करे तथा कार्यकर्त्ता गृहपति स्तम्भ खड़ा करके उस के मूल में जल से सेचन करे, जिससे वह दृढ़ रहे।
पुनः द्वार के सामने बाहर जाकर नीचे लिखे चार मन्त्रों से जलसेचन करे—
ओम् इमामुच्छ्रयामि भुवनस्य नाभिं वसोर्द्धारां प्रतरणीं वसूनाम्। इहैव ध्रुवां निमिनोमि शालां क्षेमे तिष्ठतु घृतमुच्छ्रयमाणा॥1॥
इस मन्त्र से पूर्व द्वार के सामने जल छिटकावे।
अश्वावती गोमती सूनृतावत्युच्छ्रयस्व महते सौभगाय।
आ त्वा शिशुराक्रन्दन् त्वा गावो धेनवो वाश्यमानाः॥2॥
इस मन्त्र से दक्षिण द्वार।
आ त्वा कुमारस्तरुण आ वत्सो जगदैः सह। आ त्वा परिस्रुतः कुम्भ आ दध्नः कलशैरुप।
क्षेमस्य पत्नी बृहती सुवासा रयिं नो धेहि सुभगे सुवीर्यम्॥3॥
इस मन्त्र से पश्चिम द्वार।
अश्वावद् गोमदूर्जस्वत् पर्णं वनस्पतेरिव।
अभि नः पूर्यतां रयिरिदमनुश्रेयो वसानः॥4॥
इस मन्त्र से उत्तर द्वार के सामने जल छिटकावे। तत्पश्चात् सब द्वारों पर पुष्प और पल्लव तथा कदली-स्तम्भ वा कदली के पत्ते भी द्वारों की शोभा के लिये लगाकर, पश्चात् गृहपति—
हे ब्रह्मन् ! प्रविशामीति।
ऐसा वाक्य बोले। और ब्रह्मा—
वरं भवान् प्रविशतु॥
ऐसा प्रत्युत्तर देवे। और ब्रह्मा की अनुमति से—
ओम् ऋचं प्रपद्ये शिवं प्रपद्ये॥
इस वाक्य को बोलके भीतर प्रवेश करे और जो घृत गरम कर, छान, सुगन्ध मिलाकर रक्खा हो, उस को पात्र में लेके जिस द्वार से प्रथम प्रवेश करे, उसी द्वार से प्रवेश करके, पृष्ठ 18-20 में लिखे प्रमाणे आचमन करके अग्न्याधान, समिदाधान, जलप्रोक्षण पृष्ठ 20-21 में लिखे प्रमाणे घृत की आघारावाज्यभागाहुति 4 चार और व्याहृति आहुति 4 चार, नवमी स्विष्टकृत् आज्याहुति एक, अर्थात् दिशाओं की द्वारस्थ वेदियों में अग्न्याधान से लेके स्विष्टकृत् आहुतिपर्यन्त विधि करके, पश्चात् पूर्वदिशा द्वारस्थ कुण्ड में—
ओं प्राच्या दिशः शालाया नमो महिम्ने स्वाहा॥1॥
ओं देवेभ्यः स्वाह्येभ्यः स्वाहा॥2॥
इन दो मन्त्रों से पूर्व द्वारस्थ वेदी में दो घृताहुति देवे। वैसे ही—
ओं दक्षिणाया दिशः शालाया नमो महिम्ने स्वाहा॥1॥
ओं देवेभ्यः स्वाह्येभ्यः स्वाहा॥2॥
इन दो मन्त्रों से दक्षिण द्वारस्थ वेदी में एक-एक मन्त्र करके दो आज्याहुति और—
ओं प्रतीच्या दिशः शालाया नमो महिम्ने स्वाहा॥1॥
ओं देवेभ्यः स्वाह्येभ्यः स्वाहा॥2॥
इन दो मन्त्रों से दो आज्याहुति पश्चिमदिशाद्वारस्थ कुण्ड में देवे।
ओम् उदीच्या दिशः शालाया नमो महिम्ने स्वाहा॥1॥
ओं देवेभ्यः स्वाह्येभ्यः स्वाहा॥2॥
इन से उत्तर दिशास्थ वेदी में दो आज्याहुति देवे। पुनः मध्यशालास्थ वेदी के समीप जाके स्व-स्व दिशा में बैठके—
ओं ध्रुवाया दिशः शालाया नमो महिम्ने स्वाहा॥1॥
ओं देवेभ्यः स्वाह्येभ्यः स्वाहा॥2॥
इन से मध्य वेदी में दो आज्याहुति।
ओम् ऊर्ध्वाया दिशः शालाया नमो महिम्ने स्वाहा॥1॥
ओं देवेभ्यः स्वाह्येभ्यः स्वाहा॥2॥
इन से भी दो आहुति मध्यवेदी में। और—
ओं दिशोदिशः शालाया नमो महिम्ने स्वाहा॥1॥
ओं देवेभ्यः स्वाह्येभ्यः स्वाहा॥2॥
इन से भी दो आज्याहुति मध्यस्थ वेदी में देके, पुनः पूर्व दिशास्थ द्वारस्थ वेदी में अग्नि को प्रज्वलित करके वेदी के दक्षिण भाग में ब्रह्मासन तथा होता आदि के पूर्वोक्त प्रकार आसन बिछवा, उसी वेदी के उत्तर भाग में एक कलश स्थापन कर, पृष्ठ 13 में लिखे प्रमाणे स्थालीपाक बनाके, पृथक् निष्क्रम्यद्वार के समीप जा ठहर कर ब्रह्मादिसहित गृहपति मध्यशाला में प्रवेश करके ब्रह्मादि को दक्षिणादि आसन पर बैठा, स्वयं पूर्वाभिमुख बैठके संस्कृत घी अर्थात् जो गरम कर छान, जिस में कस्तूरी आदि सुगन्ध मिलाया हो, पात्र में लेके सब के सामने एक-एक पात्र भरके रक्खे। और चमसा में लेके—
ओं वास्तोष्पते प्रति जानीह्यस्मान्त्स्वावेशो अनमीवो भवा नः।
यत्त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्व शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे स्वाहा॥1॥
वास्तोष्पते प्रतरणो न एधि गयस्फानो गोभिरश्वेभिरिन्दो।
अजरासस्ते सख्ये स्याम पितेव पुत्रान् प्रति तन्नो जुषस्व स्वाहा॥2॥
वास्तोष्पते शग्मया संसदा ते सक्षीमहि रण्वया गातुमत्या।
पाहि क्षेम उत योगे वरं नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः स्वाहा॥3॥
—ऋ॰ मं॰ 7। सू॰ 54॥
अमीवहा वास्तोष्पते विश्वा रूपाण्याविशन्।
सखा सुशेव एधि नः स्वाहा॥4॥ —ऋ॰ मं॰ 7। सू॰ 55। मं॰ 1॥
इन 4 चार मन्त्रों से 4 चार आज्याहुति देके, जो स्थालीपाक अर्थात् भात बनाया हो, उस को दूसरे कांसे के पात्र में लेके, उस पर यथायोग्य घृत सेचन करके अपने-अपने सामने रक्खे और पृथक्-पृथक् थोड़ा-थोड़ा लेकर—
ओम् अग्निमिन्द्रं बृहस्पतिं विश्वाँश्च देवानुपह्वये।
सरस्वतीञ्च वाजीञ्च वास्तु मे दत्त वाजिनः स्वाहा॥1॥
सर्पदेवजनान्त्सर्वान् हिमवन्तं सुदर्शनम्।
वसूँश्च रुद्रानादित्यानीशानं जगदैः सह।
एतान्त्सर्वान् प्रपद्येहं वास्तु मे दत्त वाजिनः स्वाहा॥2॥
पूर्वाह्णमपराह्णं चोभौ मध्यन्दिना सह।
प्रदोषमर्धरात्रं च व्युष्टां देवीं महापथाम्।
एतान्त्सर्वान् प्रपद्येहं वास्तु मे दत्त वाजिनः स्वाहा॥3॥
ओं कर्तारञ्च विकर्तारं विश्वकर्माणमोषधींश्च वनस्पतीन्।
एतान्त्सर्वान् प्रपद्येहं वास्तु मे दत्त वाजिनः स्वाहा॥4॥
धातारं च विधातारं निधीनां च पतिं सह।
एतान्त्सर्वान् प्रपद्येहं वास्तु मे दत्त वाजिनः स्वाहा॥5॥
स्योनं शिवमिदं वास्तु दत्तं ब्रह्मप्रजापती।
सर्वाश्च देवताश्च स्वाहा॥6॥
स्थालीपाक अर्थात् घृतयुक्त भात की इन छह मन्त्रों से छह आहुति देकर कांस्यपात्र में उदुम्बर=गूलर, पलाश के पत्ते, शाड्वल=तृणविशेष, गोमय, दही, मधु, घृत, कुशा और यव को लेके उन सब वस्तुओं को मिलाकर—
ओं श्रीश्च त्वा यशश्च पूर्वे सन्धौ गोपायेताम्॥1॥
इस मन्त्र से पूर्व द्वार।
यज्ञश्च त्वा दक्षिणा च दक्षिणे सन्धौ गोपयेताम्॥2॥
इस से दक्षिण द्वार।
अन्नञ्च त्वा ब्राह्मणश्च पश्चिमे सन्धौ गोपायेताम्॥3॥
इस से पश्चिम द्वार।
ऊर्क् च त्वा सूनृता चोत्तरे सन्धौ गोपायेताम्॥4॥
इस से उत्तर द्वार के समीप उन को बखेरे, और जलप्रोक्षण भी करे।
केता च मा सुकेता च पुरस्ताद् गोपायेतामित्यग्निर्वै केताऽऽदित्यः सुकेता तौ प्रपद्ये ताभ्यां नमोऽस्तु तौ मा पुरस्ताद् गोपायेताम्॥1॥
इस से पूर्व दिशा में परमात्मा का उपस्थान करके दक्षिण द्वार के सामने दक्षिणाभिमुख होके—
दक्षिणतो गोपायमानं च मा रक्षमाणा च दक्षिणतो गोपायेतामित्यहर्वै गोपायमानं रात्री रक्षमाणा ते प्रपद्ये ताभ्यां नमोऽस्तु ते मा दक्षिणतो गोपायेताम्॥2॥
इस प्रकार जगदीश का उपस्थान करके पश्चिम द्वार के सामने पश्चिमाभिमुख होके—
दीदिविश्च मा जागृविश्च पश्चाद् गोपायेतामित्यन्नं वै दीदिविः प्राणो जागृविस्तौ प्रपद्ये ताभ्यां नमोऽस्तु तौ मा पश्चाद् गोपायेताम्॥3॥
इस प्रकार पश्चिम दिशा में सर्वरक्षक परमात्मा का उपस्थान करके उत्तर दिशा में उत्तर द्वार के सामने उत्तराभिमुख खड़े रहके—
अस्वप्नश्च माऽनवद्राणश्चोत्तरतो गोपायेतामिति चन्द्रमा वा अस्वप्नो वायुरनवद्राणस्तौ प्रपद्ये ताभ्यां नमोऽस्तु तौ मोत्तरतो गोपायेताम्॥4॥
धर्मस्थूणाराजं श्रीसूर्यामहोरात्रे द्वारफलके। इन्द्रस्य गृहा वसुमन्तो वरूथिनस्तानहं प्रपद्ये सह प्रजया पशुभिस्सह। यन्मे किञ्चिदस्त्युपहूतः सर्वगणः सखा यः साधुसंमतस्तां त्वा शाले अरिष्टवीरा गृहा नः सन्तु सर्वतः॥5॥
इस प्रकार उत्तर दिशा में सर्वाधिष्ठाता परमात्मा का उपस्थान करके, सुपात्र वेदवित् धार्मिक होता आदि सपत्नीक ब्राह्मण तथा इष्ट मित्र और सम्बन्धियों को उत्तम भोजन कराके, यथायोग्य सत्कार करके दक्षिणा दे, पुरुषों को पुरुष और स्त्रियों को स्त्री प्रसन्नतापूर्वक विदा करें। और वे जाते समय गृहपति और गृहपत्नी आदि को
‘सर्वे भवन्तोऽत्राऽऽनन्दिताः सदा भूयासुः॥’
इस प्रकार आशीर्वाद देके अपने-अपने घर को जावें।
इसी प्रकार आराम आदि की भी प्रतिष्ठा करें। इस में इतना ही विशेष है कि जिस ओर का वायु बगीचे को जावे, उसी ओर होम करे कि जिस का सुगन्ध वृक्ष आदि को सुगन्धित करे। यदि उस में घर बना हो तो शाला के समान उस की भी प्रतिष्ठा करे॥
॥ इति शालादिसंस्कारविधिः॥
गृह प्रवेश पर सुंदर व्याख्या