( महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज द्वारा निर्देशित आर्यों की दिनचर्या )
आचमन
ओम् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा॥1॥
इस से एक।
ओम् अमृतापिधानमसि स्वाहा॥2॥
इस से दूसरा।
ओं सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा॥3॥
इस से तीसरा आचमन करके, तत्पश्चात् नीचे लिखे मन्त्रों से जल करके अंगों का स्पर्श करें—
अङ्गस्पर्श
ओं वाङ्म आस्येऽस्तु॥1॥
इस मन्त्र से मुख।
नसोर्मे प्राणोऽस्तु॥2॥
इस मन्त्र से नासिका के दोनों छिद्र।
ओम् अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु॥3॥
इस मन्त्र से दोनों आँखें।
ओं कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु॥4॥
इस मन्त्र से दोनों कान।
ओं बाह्वोर्मे बलमस्तु॥5॥
इस मन्त्र से दोनों बाहु।
ओम् ऊर्वोर्मऽओजोऽस्तु॥6॥
इस मन्त्र से दोनों जंघा और
ओम् अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु॥
इस मन्त्र से दाहिने हाथ से जल-स्पर्श करके मार्जन करना।
॥अथेश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासनामन्त्राः॥
ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद् भद्रं तन्नऽआ सुव॥1॥
—यजुः अ॰ 30। मं॰ 3॥
अर्थ—हे (सवितः) सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, (देव) शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके (नः) हमारे (विश्वानि) सम्पूर्ण (दुरितानि) दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को (परा सुव ) दूर कर दीजिये। (यत्) जो (भद्रम्) कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, (तत्) वह सब हम को (आ सुव) प्राप्त कीजिए॥1॥
तू सर्वेश सकल सुखदाता, शुद्ध स्वरूप विधाता है।
उसके कष्ट नष्ट हो जाते, जो तेरे ढिंग आता है।।
सारे दुर्गुण-दुव्र्यसनों से, हमको नाथ बचा लीजे।
मंगलमय गुण कर्म पदारथ, प्रेम सिन्धु हमको दीजे ।।
हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥2॥
—यजुः अ॰ 13। मं॰ 4॥
अर्थ—जो (हिरण्यगर्भः) स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाश करनेहारे सूर्य-चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, जो (भूतस्य) उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का (जातः) प्रसिद्ध (पतिः) स्वामी (एकः) एक ही चेतनस्वरूप (आसीत्) था, जो (अग्रे) सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व (समवर्त्तत) वर्तमान था, (सः) सो (इमाम्) इस (पृथिवीम्) भूमि (उत) और (द्याम्) सूर्यादि को (दाधार) धारण कर रहा है। हम लोग उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) शुद्ध परमात्मा के लिए (हविषा) ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से (विधेम) विशेष भक्ति किया करें॥2॥
तू ही स्वयं प्रकाश सुचेतन, सुखस्वरूप शुभदाता हे।
सूर्यचन्द्र लोकादिक को तू रचता ओर टिकाता है।।
पहले था अब भी तू ही है, घट घट में व्यापक स्वामी।
योग भक्ति तप द्वारा तुमको पावे हम अन्तर्यामी ।।
यऽ आत्मदा बलदा यस्य विश्वऽउपासते प्रशिषं यस्य देवाः।
यस्य च्छायाऽमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥3॥
—यजुः अ॰ 25। मं॰ 13॥
अर्थ—(यः) जो (आत्मदाः) आत्मज्ञान का दाता, (बलदाः) शरीर, आत्मा और समाज के बल का देनेहारा, (यस्य) जिस की (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (उपासते) उपासना करते हैं, और (यस्य) जिस का (प्रशिषम्) प्रत्यक्ष, सत्यस्वरूप शासन और न्याय अर्थात् शिक्षा को मानते हैं, (यस्य) जिस का (छाया) आश्रय ही (अमृतम्) मोक्षसुखदायक है, (यस्य) जिस का न मानना अर्थात् भक्ति न करना ही (मृत्युः) मृत्यु आदि दुःख का हेतु है, हम लोग उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) सकल ज्ञान के देनेहारे परमात्मा की प्राप्ति के लिये (हविषा) आत्मा और अन्तःकरण से (विधेम) भक्ति अर्थात् उसी की आज्ञा पालन करने में तत्पर रहें॥3॥
तू ही आत्मज्ञान बलदाता सुयश विज्ञजन गाते हैं।
तेरी चरण-शरण में आकर भव सागर तर जाते हैं।।
तुझको ही जपना जीवन है मरण तुझे विसराने में ।
मेरी सारी शक्ति लगे प्रभु, तुझसे लगन लगाने में ।।
यः प्राणतो निमिषतो महित्वैकऽ इद्राजा जगतो बभूव।
यऽईशेऽ अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥4॥
—यजुः अ॰ 23। मं॰ 3
अर्थ—(यः) जो (प्राणतः) प्राणवाले और (निमिषतः) अप्राणिरूप (जगतः) जगत् का (महित्वा) अपने अनन्त महिमा से (एकः इत्) एक ही (राजा) विराजमान राजा (बभूव) है, (यः) जो (अस्य) इस (द्विपदः) मनुष्यादि और (चतुष्पदः) गौ आदि प्राणियों के शरीर की (ईशे) रचना करता है, हम लोग उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) सकलैश्वर्य के देनेहारे परमात्मा के लिये (हविषा) अपनी सकल उत्तम सामग्री से (विधेम) विशेष भक्ति करें॥4॥
तूने अपनी अनुपम माया से जग ज्योति जगाई है।
मनुज और पशुओं को रचकर निज महिमा प्रगटाई है।।
अपने हिय सिंहासन पर श्रद्धा से तुझे बिठाते हैं ।
भक्ति भाव की भेंटे लेकर तव चरणो में आते हैं ।।
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा येन स्वः स्तभितं येन नाकः।
योऽअन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥5॥
—यजुः अ॰ 32। मं॰ 6॥
अर्थ—(येन) जिस परमात्मा ने (उग्रा) तीक्ष्ण स्वभाव वाले (द्यौः) सूर्य आदि (च) और (पृथिवी) भूमि को (दृढा) धारण, (येन) जिस जगदीश्वर ने (स्वः) सुख को (स्तभितम्) धारण, और (येन) जिस ईश्वर ने (नाकः) दुःखरहित मोक्ष को धारण किया है, (यः) जो (अन्तरिक्षे) आकाश में (रजसः) सब लोकलोकान्तरों को (विमानः) विशेष मानयुक्त अर्थात् जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं, वैसे सब लोकों का निर्माण करता और भ्रमण कराता है, हम लोग उस (कस्मै) सुखदायक (देवाय) कामना करने के योग्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिये (हविषा) सब सामर्थ्य से (विधेम) विशेष भक्ति करें॥5॥
तारे रवि चन्द्रादिक रचकर निज प्रकाश चमकाया है ।
धरणी को धारण कर तूने कौशल अलख लखाया है ।।
तू ही विश्व विधाता पोषक, तेरा ही हम ध्यान करें ।
शुद्ध भाव से भगवन् तेरे भजनामृत का पान करें ।।
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नोऽअस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥6॥
—ऋ॰ म॰ 10। सू॰ 121। म॰ 10॥
अर्थ—हे (प्रजापते) सब प्रजा के स्वामी परमात्मा ! (त्वत्) आप से (अन्यः) भिन्न दूसरा कोई (ता) उन (एतानि) इन (विश्वा) सब (जातानि) उत्पन्न हुए जड़ चेतनादिकों को (न) नहीं (परि बभूव) तिरस्कार करता है, अर्थात् आप सर्वोपरि हैं। (यत्कामाः) जिस-जिस पदार्थ की कामनावाले हम लोग (ते) आपका (जुहुमः) आश्रय लेवें और वाञ्छा करें, (तत्) उस-उस की कामना (नः) हमारी सिद्ध (अस्तु) होवे। जिस से (वयम्) हम लोग (रयीणाम्) धनैश्वर्यों के (पतयः) स्वामी (स्याम) होवें॥6॥
तुझसे भिन्न न कोई जग में, सब में तू ही समाया है।
जड़-चेतन सब तेरी रचना तुझमें आश्रय पाया है।।
हे सर्वोपरि विभो विश्व का, तूने साज सजाया है ।
हेतु रहित अनुराग दीजिए, यही भक्त को भाया है ।।
स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवाऽ अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त ॥7॥
—यजु॰ अ॰ 32। मं॰ 10॥
अर्थ—हे मनुष्यो! (सः) वह परमात्मा (नः) अपने लोगों का (बन्धुः) भ्राता के समान सुखदायक, (जनिता) सकल जगत् का उत्पादक, (सः) वह (विधाता) सब कामों का पूर्ण करनेहारा, (विश्वा) सम्पूर्ण (भुवनानि) लोकमात्र और (धामानि) नाम, स्थान, जन्मों को (वेद) जानता है। और (यत्र) जिस (तृतीये) सांसारिक सुखदुःख से रहित, नित्यानन्दयुक्त (धामन्) मोक्षस्वरूप, धारण करनेहारे परमात्मा में (अमृतम्) मोक्ष को (आनशानाः) प्राप्त होके (देवाः) विद्वान् लोग (अध्यैरयन्त) स्वेच्छापूर्वक विचरते हैं, वही परमात्मा अपना गुरु आचार्य राजा और न्यायाधीश है। अपने लोग मिलके सदा उस की भक्ति किया करें॥7॥
तू गुरू है प्रजेश भी तू है, पाप-पुण्य फल दाता है।
तू ही सखा बन्धु मम तू ही, तुझसे ही सब नाता है ।।
भक्तों को भव बन्धन से, तू ही मुक्त कराता है ।
तू है अज अद्वैत महाप्रभु, सर्वकाल का ज्ञाता है ।।
अग्ने नय सुपथा रायेऽ अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नमऽउक्तिं विधेम ॥8॥
—यजुः अ॰ 40। मं॰ 16
अर्थ—हे (अग्ने) स्वप्रकाश, ज्ञानस्वरूप, सब जगत् के प्रकाश करनेहारे, (देव) सकल सुखदाता परमेश्वर ! आप जिस से (विद्वान्)सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं, कृपा करके (अस्मान्) हम लोगों को (राये) विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये (सुपथा) अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से (विश्वानि) सम्पूर्ण (वयुनानि) प्रज्ञान और उत्तम कर्म (नय) प्राप्त कराइये। और (अस्मत्) हम से (जुहुराणम्) कुटिलतायुक्त (एनः) पापरूप कर्म को (युयोधि) दूर कीजिये। इस कारण हम लोग (ते) आपकी (भूयिष्ठाम्) बहुत प्रकार की स्तुतिरूप (नमः उक्तिम्) नम्रतापूर्वक प्रशंसा (विधेम) सदा किया करें, और सर्वदा आनन्द में रहें॥8॥
तू है स्वयं प्रकाशरूप प्रभु सबका सिरजनहार तू ही।
रसना निशदिन रटे तुम्हीं को मन में बसना सदा तू ही ।।
अर्थ-अनर्थ से हमें बचाते रहना हरदम दयानिधान ।
अपने भक्तजनों को भगवान् दीजे यही विशद वरदान ।।
॥ इतीश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासनाप्रकरणम्॥
अग्न्याधान
पूर्वोक्त समिधाचयन वेदी में करें। पुनः—
ओं भूर्भुवः स्वः॥
इस मन्त्र का उच्चारण करके ब्राह्मण क्षत्रिय वा वैश्य के घर से अग्नि ला, अथवा घृत का दीपक जला, उस से कपूर में लगा, किसी एक पात्र में धर, उस में छोटी-छोटी लकड़ी लगाके यजमान वा पुरोहित उस पात्र को दोनों हाथों से उठा, यदि गर्म हो तो चिमटे से पकड़कर अगले मन्त्र से अग्न्याधान करे। वह मन्त्र यह है—
ओं भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा।
तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे॥
—यजुः अ॰ 3। मं॰ 5॥
इस मन्त्र से वेदी के बीच में अग्नि को धर, उस पर छोटे-छोटे काष्ठ और थोड़ा कपूर धर, अगला मन्त्र पढ़के व्यजन से अग्नि को प्रदीप्त करे—
ओम् उद्बुध्यस्वाग्ने प्रतिजागृहि त्वमिष्टापूर्त्ते संसृजेथामयं च।
अस्मिन्त्सधस्थेऽअध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत॥
—यजुः अ॰ 15। मं॰ 54॥
जब अग्नि समिधाओं में प्रविष्ट होने लगे, तब चन्दन की अथवा ऊपरलिखित पलाशादि की तीन लकड़ी आठ-आठ अंगुल की घृत में डुबा, उन में से एक-एक निकाल नीचे लिखे एक-एक मन्त्र से एक-एक समिधा को अग्नि में चढ़ावें। वे मन्त्र ये हैं—
ओम् अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय
चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा॥
इदमग्नये जातवेदसे इदं न मम॥1॥
—इस मन्त्र से एक
ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्।
आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा॥ इदमग्नये इदं न मम॥2॥
—इस से, और
सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन।
अग्नये जातवेदसे स्वाहा॥ इदमग्नये जातवेदसे इदं न मम॥3॥
—इस मन्त्र से अर्थात् इन दोनों से दूसरी।
ओं तन्त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्धयामसि।
बृहच्छोचा यविष्ठ्य स्वाहा॥ इदमग्नयेऽङ्गिरसे इदं न मम॥4॥
—यजुः अ॰ 3। मं॰ 1, 2, 3॥
इस मन्त्र से तीसरी समिधा की आहुति देवें।
इन मन्त्रों से समिदाधान करके होम का शाकल्य, जो कि यथावत् विधि से बनाया हो, सुवर्ण, चांदी, कांसा आदि धातु के पात्र अथवा काष्ठ-पात्र में वेदी के पास सुरक्षित धरें। पश्चात् उपरिलिखित घृतादि जो कि उष्ण कर छान, पूर्वोक्त सुगन्ध्यादि पदार्थ मिलाकर पात्रों में रखा हो, उसमें से कम से कम 6 मासा भर घृत वा अन्य मोहनभोगादि जो कुछ सामग्री हो, अधिक से अधिक छटांक भर की आहुति देवें, यही आहुति का प्रमाण है।
उस घृत में से चमसा कि जिस में छः मासा ही घृत आवे ऐसा बनाया हो, भरके नीचे लिखे मन्त्र से पांच आहुति देनी—
ओम् अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय
चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा॥
इदमग्नये जातवेदसे इदन्न मम॥5॥
तत्पश्चात् वेदी के पूर्व दिशा आदि और अञ्जलि में जल लेके चारों ओर छिड़कावे। उसके ये मन्त्र हैं—
ओम् अदितेऽनुमन्यस्व॥
—इस मन्त्र से पूर्व।
ओम् अनुमतेऽनुमन्यस्व॥
—इस से पश्चिम।
ओं सरस्वत्यनुमन्यस्व॥
—इस से उत्तर। और—
ओं देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय।
दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु॥
—यजुः अ॰ 30। मं॰ 1
इस मन्त्र से वेदी के चारों ओर जल छिड़कावे।
इसके पश्चात् सामान्यहोमाहुति गर्भाधानादि प्रधान संस्कारों में अवश्य करें। इस में मुख्य होम के आदि और अन्त में जो आहुति दी जाती हैं, उन में से यज्ञकुण्ड के उत्तर भाग में जो एक आहुति, और यज्ञकुण्ड के दक्षिण भाग में दूसरी आहुति देनी होती है, उस का नाम “आघारावाज्याहुति” कहते हैं। और जो कुण्ड के मध्य में आहुतियां दी जाती हैं, उन का नाम “आज्यभागाहुति” कहते हैं। सो घृतपात्र में से स्रुवा को भर अंगूठा, मध्यमा, अनामिका से स्रुवा को पकड़के—
आघारावाज्यभागाहुतयः
शुद्ध किये हुए सुगन्ध्यादि युक्त घी को तपा के पात्र में लेके घृतपात्र में से स्रुवा को भर अंगूठा, मध्यमा, अनामिका से स्रुवा को पकड़के निम्न मन्त्रों से घृत की आहुति दें।
ओ३म् अग्नये स्वाहा | इदमग्नये – इदन्न मम।।
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में आहुति देवें।
ओ३म् सोमाय स्वाहा | इदं सोमाय – इदन्न मम।।
इस मन्त्र से वेदी के दक्षिण भाग अग्नि में आहुति देवें। तत्पश्चात्
ओ३म् प्रजापतये स्वाहा | इदं प्रजापतये – इदन्न मम।।
ओ३म् इन्द्राय स्वाहा | इदं इन्द्राय – इदन्न मम।।
इन दोनों मन्त्रों से वेदी के मध्य भाग में दो आहुति देवें।
प्रातःकालीनहोममन्त्रा:
निम्न मन्त्रों से घृत के साथ साथ सामग्री की भी आहुतियां देवें।
ओ३म् सूर्यो ज्योतिर्ज्योति: सूर्य: स्वाहा।।१।।
ओ३म् सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्च: स्वाहा।।२।।
ओ३म् ज्योतिः सूर्य: सुर्यो ज्योति: स्वाहा।।३।।
ओ३म् सजूर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्रवत्या। जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा।।४।।
ओ३म् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।।१।।
ओ३म् भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा। इदं वायवेऽपानाय – इदन्न मम।।२।।
ओ३म् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा। इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।।३।।
ओ३म् भूर्भुवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।
इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः – इदन्न मम।।४।।
ओ३म् आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।।५।।
ओ३म् यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते। तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।।६।।
ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद् भद्रं तन्न आ सुव ।।७।।
ओ३म् अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् ।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम ।।८।।
आघारावाज्यभागाहुतयः
प्रातः कालीन आहुतियों के बाद पुनः आघारावाज्यभागाहुती देवें
ओ३म् अग्नये स्वाहा | इदमग्नये – इदन्न मम।।
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में आहुति देवें।
ओ३म् सोमाय स्वाहा | इदं सोमाय – इदन्न मम।।
इस मन्त्र से वेदी के दक्षिण भाग अग्नि में आहुति देवें। तत्पश्चात्
ओ३म् प्रजापतये स्वाहा | इदं प्रजापतये – इदन्न मम।।
ओ३म् इन्द्राय स्वाहा | इदं इन्द्राय – इदन्न मम।।
इन दोनों मन्त्रों से वेदी के मध्य भाग में दो आहुति देवें।
सायं कालीनहोममन्त्रा:
निम्न मन्त्रों से सायं कालीन अग्निहोत्र करें। इन मन्त्रों से घृत के साथ साथ सामग्री की भी आहुतियां देवें।
ओ३म् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा।।१।।
ओ३म् अग्निवर्चो ज्योतिर्वच: स्वाहा।।२।।
ओ३म् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा।।३।।
इस मन्त्र को मन में उच्चारण करके आहुति देवें
ओ३म् सजूर्देवेन सवित्रा सजु रात्र्येन्द्रवत्या। जुषाणो अग्निर्वेतु स्वाहा।।४।।
ओ३म् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।।१।।
ओ३म् भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा। इदं वायवेऽपानाय – इदन्न मम।।२।।
ओ३म् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा। इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।।३।।
ओ३म् भूर्भुवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।
इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः – इदन्न मम।।४।।
ओ३म् आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।।५।।
ओ३म् यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते। तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।।६।।
ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद् भद्रं तन्न आ सुव ।।७।।
ओ३म् अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् ।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम ।।८।।
इस प्रकार सूर्योदय के पश्चात् प्रातःकाल या सूर्यास्त से पूर्व सायं काल पूर्वोक्त मंत्रों से होम करके अधिक होम करने की जहाँ तक इच्छा हो वहां तक स्वाहा अन्त में पढ़कर गायत्री मन्त्र से होम करें।
ओ३म् भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् स्वाहा।।
और जो अधिक आहुति देना हो तो —
“ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद् भद्रं तन्न आ सुव।।”
इस मन्त्र से आहुति देवें।
पुनः निम्नलिखित मन्त्र से पूर्णाहुति करें। स्रुवा को घृत से भरके—
ओं सर्वं वै पूर्णं स्वाहा॥
इस मन्त्र से एक आहुति देवें। ऐसे दूसरी और तीसरी आहुति देके, जिस को दक्षिणा देनी हो देवें, वा जिस को जिमाना हो जिमा, दक्षिणा देके सब को विदाकर स्त्रीपुरुष हुतशेष घृत, भात वा मोहनभोग को प्रथम जीमके पश्चात् रुचिपूर्वक उत्तमान्न का भोजन करें।