वासन्ती नवसस्येष्टि ( होलकोत्सव )
ऋतुराज वसन्त विराज रहा, मनभावन है छवि छाज रहा।
बन-बागन में कुसुमावलि की, सुखदा सुषमा वह साज रहा ॥
यव गेहुँ चना सरसों अलसी, सब ही पक आज अनाज रहा।
यह देख मनोहर दृश्य सभी, अति हर्षित होय समाज रहा ॥
उपलक्ष्य इसे करके जग में, शुभ होलक-उत्सव हैं करते।
अधपक्व, यवाहुति दे करके, सब व्योम सुगन्ध से हैं भरते ॥
सब सज्जन-वृन्द अतः जग में, नव सस्य-सुयज्ञ इसे कहते।
कुल-वैर-विसार स्नेह-सने, हुलसे सब आपस में मिलते ॥
चर पान इलायचि भेंट करें, निज मित्र-समादर हैं करते।
हृदयंगम गायन-वादन से, मुद से सब हैं मन को भरते ॥
-पं० सिद्धगोपाल कविरत्न काव्यतीर्थकृत
वसन्त ऋतु में आने वाली फसल आने पर किया जाने वाला यज्ञ वासन्ती नवसस्येष्टि ( होलकोत्सव ) कहलाता है। यह वर्ष के चार प्रमुख त्यौहारों में से अन्तिम त्यौहार है। यह त्यौहार फाल्गुन पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। इस त्यौहार को बड़ी ही धूम-धाम से मनाना चाहिए।
यह त्यौहार वैदिक काल से मनाया जा रहा है आज इनकी ऐतिहासिक मान्यताओं को बदलकर प्रचार किया जा रहा है जो कि भारतीय वैदिक परम्पराओं तथा सामाजिक और राष्ट्रीय दृष्टि से बहुत ही हानिकर है।
वासन्ती नवसस्येष्टि ( होलकोत्सव ) के दिन किये जाने वाले यज्ञ की विधि
- आचमन
- अङ्गस्पर्श
- ईश्वरस्तुतिप्रार्थनाउपासनामन्त्राः
- स्वस्तिवाचनम्
- शान्तिकरणम्
- दैनिक अग्निहोत्र
- पूर्णिमा का पाक्षिक यज्ञ
- नवसस्येष्टि के मन्त्रों से यज्ञ
यह उपरोक्त विधि विस्तार से नीचे दी जा रही है
आचमन
ओम् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा॥1॥
इस से एक।
ओम् अमृतापिधानमसि स्वाहा॥2॥
इस से दूसरा।
ओं सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा॥3॥
इस से तीसरा आचमन करके, तत्पश्चात् नीचे लिखे मन्त्रों से जल करके अंगों का स्पर्श करें—
अङ्गस्पर्श
ओं वाङ्म आस्येऽस्तु॥1॥
इस मन्त्र से मुख।
नसोर्मे प्राणोऽस्तु॥2॥
इस मन्त्र से नासिका के दोनों छिद्र।
ओम् अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु॥3॥
इस मन्त्र से दोनों आँखें।
ओं कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु॥4॥
इस मन्त्र से दोनों कान।
ओं बाह्वोर्मे बलमस्तु॥5॥
इस मन्त्र से दोनों बाहु।
ओम् ऊर्वोर्मऽओजोऽस्तु॥6॥
इस मन्त्र से दोनों जंघा और
ओम् अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु॥
इस मन्त्र से दाहिने हाथ से जल-स्पर्श करके मार्जन करना।
॥अथेश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासनामन्त्राः॥
ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद् भद्रं तन्नऽआ सुव॥1॥
—यजुः अ॰ 30। मं॰ 3॥
अर्थ—हे (सवितः) सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, (देव) शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके (नः) हमारे (विश्वानि) सम्पूर्ण (दुरितानि) दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को (परा सुव ) दूर कर दीजिये। (यत्) जो (भद्रम्) कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, (तत्) वह सब हम को (आ सुव) प्राप्त कीजिए॥1॥
तू सर्वेश सकल सुखदाता, शुद्ध स्वरूप विधाता है।
उसके कष्ट नष्ट हो जाते, जो तेरे ढिंग आता है।।
सारे दुर्गुण-दुव्र्यसनों से, हमको नाथ बचा लीजे।
मंगलमय गुण कर्म पदारथ, प्रेम सिन्धु हमको दीजे ।।
हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥2॥
—यजुः अ॰ 13। मं॰ 4॥
अर्थ—जो (हिरण्यगर्भः) स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाश करनेहारे सूर्य-चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, जो (भूतस्य) उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का (जातः) प्रसिद्ध (पतिः) स्वामी (एकः) एक ही चेतनस्वरूप (आसीत्) था, जो (अग्रे) सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व (समवर्त्तत) वर्तमान था, (सः) सो (इमाम्) इस (पृथिवीम्) भूमि (उत) और (द्याम्) सूर्यादि को (दाधार) धारण कर रहा है। हम लोग उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) शुद्ध परमात्मा के लिए (हविषा) ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से (विधेम) विशेष भक्ति किया करें॥2॥
तू ही स्वयं प्रकाश सुचेतन, सुखस्वरूप शुभदाता हे।
सूर्यचन्द्र लोकादिक को तू रचता ओर टिकाता है।।
पहले था अब भी तू ही है, घट घट में व्यापक स्वामी।
योग भक्ति तप द्वारा तुमको पावे हम अन्तर्यामी ।।
यऽ आत्मदा बलदा यस्य विश्वऽउपासते प्रशिषं यस्य देवाः।
यस्य च्छायाऽमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥3॥
—यजुः अ॰ 25। मं॰ 13॥
अर्थ—(यः) जो (आत्मदाः) आत्मज्ञान का दाता, (बलदाः) शरीर, आत्मा और समाज के बल का देनेहारा, (यस्य) जिस की (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (उपासते) उपासना करते हैं, और (यस्य) जिस का (प्रशिषम्) प्रत्यक्ष, सत्यस्वरूप शासन और न्याय अर्थात् शिक्षा को मानते हैं, (यस्य) जिस का (छाया) आश्रय ही (अमृतम्) मोक्षसुखदायक है, (यस्य) जिस का न मानना अर्थात् भक्ति न करना ही (मृत्युः) मृत्यु आदि दुःख का हेतु है, हम लोग उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) सकल ज्ञान के देनेहारे परमात्मा की प्राप्ति के लिये (हविषा) आत्मा और अन्तःकरण से (विधेम) भक्ति अर्थात् उसी की आज्ञा पालन करने में तत्पर रहें॥3॥
तू ही आत्मज्ञान बलदाता सुयश विज्ञजन गाते हैं।
तेरी चरण-शरण में आकर भव सागर तर जाते हैं।।
तुझको ही जपना जीवन है मरण तुझे विसराने में ।
मेरी सारी शक्ति लगे प्रभु, तुझसे लगन लगाने में ।।
यः प्राणतो निमिषतो महित्वैकऽ इद्राजा जगतो बभूव।
यऽईशेऽ अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥4॥
—यजुः अ॰ 23। मं॰ 3
अर्थ—(यः) जो (प्राणतः) प्राणवाले और (निमिषतः) अप्राणिरूप (जगतः) जगत् का (महित्वा) अपने अनन्त महिमा से (एकः इत्) एक ही (राजा) विराजमान राजा (बभूव) है, (यः) जो (अस्य) इस (द्विपदः) मनुष्यादि और (चतुष्पदः) गौ आदि प्राणियों के शरीर की (ईशे) रचना करता है, हम लोग उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) सकलैश्वर्य के देनेहारे परमात्मा के लिये (हविषा) अपनी सकल उत्तम सामग्री से (विधेम) विशेष भक्ति करें॥4॥
तूने अपनी अनुपम माया से जग ज्योति जगाई है।
मनुज और पशुओं को रचकर निज महिमा प्रगटाई है।।
अपने हिय सिंहासन पर श्रद्धा से तुझे बिठाते हैं ।
भक्ति भाव की भेंटे लेकर तव चरणो में आते हैं ।।
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा येन स्वः स्तभितं येन नाकः।
योऽअन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥5॥
—यजुः अ॰ 32। मं॰ 6॥
अर्थ—(येन) जिस परमात्मा ने (उग्रा) तीक्ष्ण स्वभाव वाले (द्यौः) सूर्य आदि (च) और (पृथिवी) भूमि को (दृढा) धारण, (येन) जिस जगदीश्वर ने (स्वः) सुख को (स्तभितम्) धारण, और (येन) जिस ईश्वर ने (नाकः) दुःखरहित मोक्ष को धारण किया है, (यः) जो (अन्तरिक्षे) आकाश में (रजसः) सब लोकलोकान्तरों को (विमानः) विशेष मानयुक्त अर्थात् जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं, वैसे सब लोकों का निर्माण करता और भ्रमण कराता है, हम लोग उस (कस्मै) सुखदायक (देवाय) कामना करने के योग्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिये (हविषा) सब सामर्थ्य से (विधेम) विशेष भक्ति करें॥5॥
तारे रवि चन्द्रादिक रचकर निज प्रकाश चमकाया है ।
धरणी को धारण कर तूने कौशल अलख लखाया है ।।
तू ही विश्व विधाता पोषक, तेरा ही हम ध्यान करें ।
शुद्ध भाव से भगवन् तेरे भजनामृत का पान करें ।।
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नोऽअस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥6॥
—ऋ॰ म॰ 10। सू॰ 121। म॰ 10॥
अर्थ—हे (प्रजापते) सब प्रजा के स्वामी परमात्मा ! (त्वत्) आप से (अन्यः) भिन्न दूसरा कोई (ता) उन (एतानि) इन (विश्वा) सब (जातानि) उत्पन्न हुए जड़ चेतनादिकों को (न) नहीं (परि बभूव) तिरस्कार करता है, अर्थात् आप सर्वोपरि हैं। (यत्कामाः) जिस-जिस पदार्थ की कामनावाले हम लोग (ते) आपका (जुहुमः) आश्रय लेवें और वाञ्छा करें, (तत्) उस-उस की कामना (नः) हमारी सिद्ध (अस्तु) होवे। जिस से (वयम्) हम लोग (रयीणाम्) धनैश्वर्यों के (पतयः) स्वामी (स्याम) होवें॥6॥
तुझसे भिन्न न कोई जग में, सब में तू ही समाया है।
जड़-चेतन सब तेरी रचना तुझमें आश्रय पाया है।।
हे सर्वोपरि विभो विश्व का, तूने साज सजाया है ।
हेतु रहित अनुराग दीजिए, यही भक्त को भाया है ।।
स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवाऽ अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त ॥7॥
—यजु॰ अ॰ 32। मं॰ 10॥
अर्थ—हे मनुष्यो! (सः) वह परमात्मा (नः) अपने लोगों का (बन्धुः) भ्राता के समान सुखदायक, (जनिता) सकल जगत् का उत्पादक, (सः) वह (विधाता) सब कामों का पूर्ण करनेहारा, (विश्वा) सम्पूर्ण (भुवनानि) लोकमात्र और (धामानि) नाम, स्थान, जन्मों को (वेद) जानता है। और (यत्र) जिस (तृतीये) सांसारिक सुखदुःख से रहित, नित्यानन्दयुक्त (धामन्) मोक्षस्वरूप, धारण करनेहारे परमात्मा में (अमृतम्) मोक्ष को (आनशानाः) प्राप्त होके (देवाः) विद्वान् लोग (अध्यैरयन्त) स्वेच्छापूर्वक विचरते हैं, वही परमात्मा अपना गुरु आचार्य राजा और न्यायाधीश है। अपने लोग मिलके सदा उस की भक्ति किया करें॥7॥
तू गुरू है प्रजेश भी तू है, पाप-पुण्य फल दाता है।
तू ही सखा बन्धु मम तू ही, तुझसे ही सब नाता है ।।
भक्तों को भव बन्धन से, तू ही मुक्त कराता है ।
तू है अज अद्वैत महाप्रभु, सर्वकाल का ज्ञाता है ।।
अग्ने नय सुपथा रायेऽ अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नमऽउक्तिं विधेम ॥8॥
—यजुः अ॰ 40। मं॰ 16
अर्थ—हे (अग्ने) स्वप्रकाश, ज्ञानस्वरूप, सब जगत् के प्रकाश करनेहारे, (देव) सकल सुखदाता परमेश्वर ! आप जिस से (विद्वान्)सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं, कृपा करके (अस्मान्) हम लोगों को (राये) विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये (सुपथा) अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से (विश्वानि) सम्पूर्ण (वयुनानि) प्रज्ञान और उत्तम कर्म (नय) प्राप्त कराइये। और (अस्मत्) हम से (जुहुराणम्) कुटिलतायुक्त (एनः) पापरूप कर्म को (युयोधि) दूर कीजिये। इस कारण हम लोग (ते) आपकी (भूयिष्ठाम्) बहुत प्रकार की स्तुतिरूप (नमः उक्तिम्) नम्रतापूर्वक प्रशंसा (विधेम) सदा किया करें, और सर्वदा आनन्द में रहें॥8॥
तू है स्वयं प्रकाशरूप प्रभु सबका सिरजनहार तू ही।
रसना निशदिन रटे तुम्हीं को मन में बसना सदा तू ही ।।
अर्थ-अनर्थ से हमें बचाते रहना हरदम दयानिधान ।
अपने भक्तजनों को भगवान् दीजे यही विशद वरदान ।।
॥ इतीश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासनाप्रकरणम्॥
अथ स्वस्तिवाचनम्
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्।
होतारं रत्नधातमम्॥1॥
स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव।
सचस्वा नः स्वस्तये॥2॥
—ऋ॰म॰ 1। सू॰ 1। मं॰ 1, 9।
स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भगः स्वस्ति देव्यदितिरनर्वणः।
स्वस्ति पूषा असुरो दधातु नः स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतुना॥3॥
स्वस्तये वायुमुप ब्रवामहै सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः।
बृहस्पतिं सर्वगणं स्वस्तये स्वस्तय आदित्यासो भवन्तु नः॥4॥
विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्निः स्वस्तये।
देवा अवन्त्वृभवः स्वस्तये स्वस्ति नो रुद्रः पात्वंहसः॥5॥
स्वस्ति मित्रावरुणा स्वस्ति पथ्ये रेवति।
स्वस्ति न इन्द्रश्चाग्निश्च स्वस्ति नो अदिते कृधि॥6॥
स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव।
पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि॥7॥
—ऋ॰ मं॰ 5। सू॰ 51।11-15॥
ये देवानां यज्ञिया यज्ञियानां मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञाः।
ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः॥8॥
—ऋ॰ मं॰ 7। सू॰ 35।65॥
येभ्यो माता मधुमत् पिन्वते पयः पीयूषं द्यौरदितिरद्रिबर्हाः।
उक्थशुष्मान् वृषभरान्त्स्वप्नसस्ताँ आदित्याँ अनु मदा स्वस्तये॥9॥
नृचक्षसो अनिमिषन्तो अर्हणा बृहद् देवासो अमृतत्वमानशुः।
ज्योतीरथा अहिमाया अनागसो दिवो वर्ष्माणं वसते स्वस्तये॥10॥
सम्राजो ये सुवृधो यज्ञमाययुरपरिह्वृता दधिरे दिवि क्षयम्।
ताँ आ विवास नमसा सुवृक्तिभिर्महो आदित्याँ अदितिं स्वस्तये॥11॥
को वः स्तोमं राधति यं जुजोषथ विश्वे देवासो मनुषो यति ष्ठन।
को वोऽध्वरं तुविजाता अरं करद्यो नः पर्षदत्यंहः स्वस्तये॥12॥
येभ्यो होत्रां प्रथमामायेजे मनुः समिद्धाग्निर्मनसा सप्त होतृभिः।
त आदित्या अभयं शर्म यच्छत सुगा नः कर्त सुपथा स्वस्तये॥13॥
य ईशिरे भुवनस्य प्रचेतसो विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च मन्तवः।
ते नः कृतादकृतादेनसस्पर्यद्या देवासः पिपृता स्वस्तये॥14॥
भरेष्विन्द्रं सुहवं हवामहेंऽहोमुचं सुकृतं दैव्यं जनम्।
अग्निं मित्रं वरुणं सातये भगं द्यावापृथिवी मरुतः स्वस्तये॥15॥
सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसं सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्।
दैवी नावं स्वरित्रामनागसमस्रवन्तीमा रुहेमा स्वस्तये॥16॥
विश्वे यजत्रा अधि वोचतोतये त्रायध्वं नो दुरेवाया अभिह्रुतः।
सत्यया वो देवहूत्या हुवेम शृण्वतो देवा अवसे स्वस्तये॥17॥
अपामीवामप विश्वामनाहुतिमपारातिं दुर्विदत्रामघायतः।
आरे देवा द्वेषो अस्मद् युयोतनोरु णः शर्म यच्छता स्वस्तये॥18॥
अरिष्टः स मर्त्तो विश्व एधते प्र प्रजाभिर्जायते धर्मणस्परि।
यमादित्यासो नयथा सुनीतिभिरति विश्वानि दुरिता स्वस्तये॥19॥
यं देवासोऽवथ वाजसातौ यं शूरसाता मरुतो हिते धने।
प्रातर्यावाण रथमिन्द्र सानसिमरिष्यन्तमा रुहेमा स्वस्तये॥20॥
स्वस्ति नः पथ्यासु धन्वसु स्वस्त्य१प्सु वृजने स्वर्वति।
स्वस्ति नः पुत्रकृथेषु योनिषु स्वस्ति राये मरुतो दधातन॥21॥
स्वस्तिरिद्धि प्रपथे श्रेष्ठा रेक्णस्वस्त्यभि या वाममेति।
सा नो अमा सो अरणे नि पातु स्वावेशा भवतु देवगोपा॥22॥
—ऋ॰ मं॰ 10। सू॰ 63॥ [मं॰ 3-16]
इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वमघ्न्याऽ इन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्ष्मा मा व स्तेनऽ ईशत माघशंसो ध्रुवाऽ अस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि॥23॥
—यजु॰ अ॰ 1। मं॰ 1
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासोऽअपरीतासऽउद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद्वृधेऽ असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे॥24॥
देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवानां रातिरभि नो निवर्तताम्।
देवानां सख्यमुपसेदिमा वयं देवा नऽआयुः प्रतिरन्तु जीवसे॥25॥
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम्।
पूषा नो यथा वेदसामसद्वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये॥26॥
स्वस्ति नऽ इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्योऽ अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥27॥
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः॥28॥
—यजु॰ अ॰ 25। मं॰ 14, 15, 18, 19, 21॥
अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये। नि होता सत्सि बर्हिषि॥29॥
त्वमग्ने यज्ञानां होता विश्वेषां हितः। देवेभिर्मानुषे जने॥30॥
—साम॰ पूर्वा॰ प्रपा॰ 1। मं॰ 1, 2॥
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः।
वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु मे॥31॥
—अथर्व॰ कां॰ 1। सू॰ 1। मं॰ 1॥
॥ इति स्वस्तिवाचनम्॥
अथ शान्तिकरणम्
शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शं न इन्द्रावरुणा रातहव्या।
शमिन्द्रासोमा सुविताय शं योः शं न इन्द्रापूषणा वाजसातौ॥1॥
शं नो भगः शमु नः शंसो अस्तु शं नः पुरन्धिः शमु सन्तु रायः।
शं नः सत्यस्य सुयमस्य शंसः शं नो अर्यमा पुरुजातो अस्तु॥2॥
शं नो धाता शमु धर्त्ता नो अस्तु शं न उरूची भवतु स्वधाभिः।
शं रोदसी बृहती शं नो अद्रिः शं नो देवानां सुहवानि सन्तु॥3॥
शं नो अग्निर्ज्योतिरनीको अस्तु शं नो मित्रावरुणावश्विना शम्।
शं नः सुकृतां सुकृतानि सन्तु शं न इषिरो अभि वातुवातः॥4॥
शं नो द्यावापृथिवी पूर्वहूतौ शमन्तरिक्षं दृशये नो अस्तु।
शं न ओषधीर्वनिनो भवन्तु शं नो रजसस्पतिरस्तु जिष्णुः॥5॥
शं न इन्द्रो वसुभिर्देवो अस्तु शमादित्येभिर्वरुणः सुशंसः।
शं नो रुद्रो रुद्रेभिर्जलाषः शं नस्त्वष्टा ग्नाभिरिह शृणोतु॥6॥
शं नः सोमो भवतु ब्रह्म शं नः शं नो ग्रावाणः शमु सन्तु यज्ञाः।
शं नः स्वरूणां मितयो भवन्तु शं नः प्रस्वः१ शम्वस्तु वेदिः॥7॥
शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु शं नश्चतस्रः प्रदिशो भवन्तु।
शं नः पर्वता ध्रुवयो भवन्तु शं नः सिन्धवः शमु सन्त्वापः॥8॥
शं नो अदितिर्भवतु व्रतेभिः शं नो भवन्तु मरुतः स्वर्काः।
शं नो विष्णुः शमु पूषा नो अस्तु शं नो भवित्रं शम्वस्तु वायुः॥9॥
शं नो देवः सविता त्रायमाणः शं नो भवन्तूषसो विभातीः।
शं नः पर्जन्यो भवतु प्रजाभ्यः शं नः क्षेत्रस्य पतिरस्तु शम्भुः॥10॥
शं नो देवा विश्वदेवा भवन्तु शं सरस्वती सह धीभिरस्तु।
शमभिषाचः शमु रातिषाचः शं नो दिव्याः पार्थिवाः शं नो अप्याः॥11॥
शं नः सत्यस्य पतयो भवन्तु शं नो अर्वन्तः शमु सन्तु गावः।
शं न ऋभवः सुकृतः सुहस्ताः शं नो भवन्तु पितरो हवेषु॥12॥
शं नो अज एकपाद् देवो अस्तु शं नोऽहिर्बुध्न्यः१ शं समुद्रः।
शं नो अपां नपात् पेरुरस्तु शं नः पृश्निर्भवतु देवगोपा॥13॥
—ऋ॰मं॰ 7। सू॰ 35। मं॰ 1-13
इन्द्रो विश्वस्य राजति। शन्नोऽअस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे॥14॥
शन्नो वातः पवतां शन्नस्तपतु सूर्य्यः।
शन्नः कनिक्रदद्देवः पर्जन्योऽअभि वर्षतु॥15॥
अहानि शम्भवन्तु नः शं रात्रीः प्रति धीयताम्।
शन्न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शन्नऽइन्द्रावरुणा रातहव्या।
शन्न इन्द्रापूषणा वाजसातौ शमिन्द्रासोमा सुविताय शं योः॥16॥
शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये। शंयोरभिस्रवन्तु नः॥17॥
द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वं
शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥18॥
तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्।
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम
शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्॥19॥
—यजुः॰ अ॰ 36। मं॰ 8, 10-12, 17, 24॥
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।
दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥20॥
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे वृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥21॥
यत् प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।
यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥22॥
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥23॥
यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन्प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।
यस्मिँचित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥24
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥25॥
—यजुः॰ अ॰ 34। मं॰ 1-6॥
स नः पवस्व शं गवे शं जनाय शमर्वते।
शं राजन्नोषधीभ्यः॥26॥
—साम॰ उत्तरा॰ प्रपा॰ 1। मं॰ 3॥
अभयं नः करत्यन्तरिक्षमभयं द्यावापृथिवी उभे इमे।
अभयं पश्चादभयं पुरस्तादुत्तरादधरादभयं नो अस्तु॥27॥
अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं परोक्षात्।
अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु॥28॥
—अथर्व॰ कां॰ 19।15।5, 6
॥ इति शान्तिकरणम्॥
अग्न्याधान
समिधाचयन वेदी में करें। पुनः—
ओं भूर्भुवः स्वः॥
इस मन्त्र का उच्चारण करके ब्राह्मण क्षत्रिय वा वैश्य के घर से अग्नि ला, अथवा घृत का दीपक जला, उस से कपूर में लगा, किसी एक पात्र में धर, उस में छोटी-छोटी लकड़ी लगाके यजमान वा पुरोहित उस पात्र को दोनों हाथों से उठा, यदि गर्म हो तो चिमटे से पकड़कर अगले मन्त्र से अग्न्याधान करे। वह मन्त्र यह है—
ओं भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा।
तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे॥
—यजुः अ॰ 3। मं॰ 5॥
इस मन्त्र से वेदी के बीच में अग्नि को धर, उस पर छोटे-छोटे काष्ठ और थोड़ा कपूर धर, अगला मन्त्र पढ़के व्यजन से अग्नि को प्रदीप्त करे—
ओम् उद्बुध्यस्वाग्ने प्रतिजागृहि त्वमिष्टापूर्त्ते संसृजेथामयं च।
अस्मिन्त्सधस्थेऽअध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत॥
—यजुः अ॰ 15। मं॰ 54॥
जब अग्नि समिधाओं में प्रविष्ट होने लगे, तब चन्दन की अथवा ऊपरलिखित पलाशादि की तीन लकड़ी आठ-आठ अंगुल की घृत में डुबा, उन में से एक-एक निकाल नीचे लिखे एक-एक मन्त्र से एक-एक समिधा को अग्नि में चढ़ावें। वे मन्त्र ये हैं—
ओम् अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय
चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा॥
इदमग्नये जातवेदसे इदं न मम॥1॥
—इस मन्त्र से एक
ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्।
आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा॥ इदमग्नये इदं न मम॥2॥
—इस से, और
सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन।
अग्नये जातवेदसे स्वाहा॥ इदमग्नये जातवेदसे इदं न मम॥3॥
—इस मन्त्र से अर्थात् इन दोनों से दूसरी।
ओं तन्त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्धयामसि।
बृहच्छोचा यविष्ठ्य स्वाहा॥ इदमग्नयेऽङ्गिरसे इदं न मम॥4॥
—यजुः अ॰ 3। मं॰ 1, 2, 3॥
इस मन्त्र से तीसरी समिधा की आहुति देवें।
इन मन्त्रों से समिदाधान करके होम का शाकल्य, जो कि यथावत् विधि से बनाया हो, सुवर्ण, चांदी, कांसा आदि धातु के पात्र अथवा काष्ठ-पात्र में वेदी के पास सुरक्षित धरें। पश्चात् उपरिलिखित घृतादि जो कि उष्ण कर छान, पूर्वोक्त सुगन्ध्यादि पदार्थ मिलाकर पात्रों में रखा हो, उसमें से कम से कम 6 मासा भर घृत वा अन्य मोहनभोगादि जो कुछ सामग्री हो, अधिक से अधिक छटांक भर की आहुति देवें, यही आहुति का प्रमाण है।
उस घृत में से चमसा कि जिस में छः मासा ही घृत आवे ऐसा बनाया हो, भरके नीचे लिखे मन्त्र से पांच आहुति देनी—
ओम् अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय
चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा॥
इदमग्नये जातवेदसे इदन्न मम॥5॥
तत्पश्चात् वेदी के पूर्व दिशा आदि और अञ्जलि में जल लेके चारों ओर छिड़कावे। उसके ये मन्त्र हैं—
ओम् अदितेऽनुमन्यस्व॥
—इस मन्त्र से पूर्व।
ओम् अनुमतेऽनुमन्यस्व॥
—इस से पश्चिम।
ओं सरस्वत्यनुमन्यस्व॥
—इस से उत्तर। और—
ओं देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय।
दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु॥
—यजुः अ॰ 30। मं॰ 1
इस मन्त्र से वेदी के चारों ओर जल छिड़कावे।
इसके पश्चात् सामान्यहोमाहुति गर्भाधानादि प्रधान संस्कारों में अवश्य करें। इस में मुख्य होम के आदि और अन्त में जो आहुति दी जाती हैं, उन में से यज्ञकुण्ड के उत्तर भाग में जो एक आहुति, और यज्ञकुण्ड के दक्षिण भाग में दूसरी आहुति देनी होती है, उस का नाम “आघारावाज्याहुति” कहते हैं। और जो कुण्ड के मध्य में आहुतियां दी जाती हैं, उन का नाम “आज्यभागाहुति” कहते हैं। सो घृतपात्र में से स्रुवा को भर अंगूठा, मध्यमा, अनामिका से स्रुवा को पकड़के—
आघारावाज्यभागाहुतयः
शुद्ध किये हुए सुगन्ध्यादि युक्त घी को तपा के पात्र में लेके घृतपात्र में से स्रुवा को भर अंगूठा, मध्यमा, अनामिका से स्रुवा को पकड़के निम्न मन्त्रों से घृत की आहुति दें।
ओ३म् अग्नये स्वाहा | इदमग्नये – इदन्न मम।।
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में आहुति देवें।
ओ३म् सोमाय स्वाहा | इदं सोमाय – इदन्न मम।।
इस मन्त्र से वेदी के दक्षिण भाग अग्नि में आहुति देवें। तत्पश्चात्
ओ३म् प्रजापतये स्वाहा | इदं प्रजापतये – इदन्न मम।।
ओ३म् इन्द्राय स्वाहा | इदं इन्द्राय – इदन्न मम।।
इन दोनों मन्त्रों से वेदी के मध्य भाग में दो आहुति देवें।
प्रातःकालीनहोममन्त्रा:
निम्न मन्त्रों से घृत के साथ साथ सामग्री की भी आहुतियां देवें।
ओ३म् सूर्यो ज्योतिर्ज्योति: सूर्य: स्वाहा।।१।।
ओ३म् सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्च: स्वाहा।।२।।
ओ३म् ज्योतिः सूर्य: सुर्यो ज्योति: स्वाहा।।३।।
ओ३म् सजूर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्रवत्या। जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा।।४।।
ओ३म् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।।१।।
ओ३म् भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा। इदं वायवेऽपानाय – इदन्न मम।।२।।
ओ३म् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा। इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।।३।।
ओ३म् भूर्भुवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।
इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः – इदन्न मम।।४।।
ओ३म् आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।।५।।
ओ३म् यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते। तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।।६।।
ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद् भद्रं तन्न आ सुव ।।७।।
ओ३म् अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् ।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम ।।८।।
आघारावाज्यभागाहुतयः
प्रातः कालीन आहुतियों के बाद पुनः आघारावाज्यभागाहुती देवें
ओ३म् अग्नये स्वाहा | इदमग्नये – इदन्न मम।।
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में आहुति देवें।
ओ३म् सोमाय स्वाहा | इदं सोमाय – इदन्न मम।।
इस मन्त्र से वेदी के दक्षिण भाग अग्नि में आहुति देवें। तत्पश्चात्
ओ३म् प्रजापतये स्वाहा | इदं प्रजापतये – इदन्न मम।।
ओ३म् इन्द्राय स्वाहा | इदं इन्द्राय – इदन्न मम।।
इन दोनों मन्त्रों से वेदी के मध्य भाग में दो आहुति देवें।
सायं कालीनहोममन्त्रा:
निम्न मन्त्रों से सायं कालीन अग्निहोत्र करें। इन मन्त्रों से घृत के साथ साथ सामग्री की भी आहुतियां देवें।
ओ३म् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा।।१।।
ओ३म् अग्निवर्चो ज्योतिर्वच: स्वाहा।।२।।
ओ३म् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा।।३।।
इस मन्त्र को मन में उच्चारण करके आहुति देवें
ओ३म् सजूर्देवेन सवित्रा सजु रात्र्येन्द्रवत्या। जुषाणो अग्निर्वेतु स्वाहा।।४।।
ओ३म् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।।१।।
ओ३म् भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा। इदं वायवेऽपानाय – इदन्न मम।।२।।
ओ३म् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा। इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।।३।।
ओ३म् भूर्भुवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।
इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः – इदन्न मम।।४।।
ओ३म् आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।।५।।
ओ३म् यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते। तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।।६।।
ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद् भद्रं तन्न आ सुव ।।७।।
ओ३म् अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् ।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम ।।८।।
इस प्रकार सूर्योदय के पश्चात् प्रातःकाल या सूर्यास्त से पूर्व सायं काल पूर्वोक्त मंत्रों से होम करके अधिक होम करने की जहाँ तक इच्छा हो वहां तक स्वाहा अन्त में पढ़कर गायत्री मन्त्र से होम करें।
ओ३म् भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् स्वाहा।।
और जो अधिक आहुति देना हो तो —
“ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद् भद्रं तन्न आ सुव।।”
पूर्णिमा का पाक्षिकयज्ञ
दैनिक अग्निहोत्र की आहुति दिये पश्चात् निम्नलिखित मन्त्रों से विशेष आहुति करें—
ओम् अग्नये स्वाहा॥1॥
ओम् अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा॥
ओं विष्णवे स्वाहा॥3॥
इन 3 तीन मन्त्रों से स्थालीपाक की 3 तीन आहुति देनी।
तत्पश्चात् व्याहृति आज्याहुति 4 चार देनी।
ओं भूरग्नये स्वाहा॥ इदमग्नये इदन्न मम॥
ओं भुवर्वायवे स्वाहा॥ इदं वायवे इदन्न मम॥
ओं स्वरादित्याय स्वाहा॥ इदमादित्याय इदन्न मम॥
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः स्वाहा॥ इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः इदं न मम
नवसस्येष्टि के मन्त्र
ओ३म् शतायुधाय शतवीर्याय शतोतयेSभिमातिषाहे ।
शतं यो नः शरदो अजीजादिन्द्रो नेषदति दुरितानि विश्वा स्वाहा ।।
ओ३म् ये चत्वारः पथयो देवयाना अन्तरा द्यावापृथिवी वियन्ति ।
तेषां यो आ ज्यानिमजीजिमा वहास्तस्मै नो देवाः परिदत्तेहसर्वं स्वाहा ।।
ओ३म् ग्रीष्मो हेमन्त उत नो वसन्तः शरद्वर्षाः सुवितन्नो अस्तु ।
तेषामृतूनां शतशारदानां निवात ऐषामभये स्याम स्वाहा ।।
ओ३म् इद्वत्सराय परिवत्सराय संवत्सराय कृणुता बृहन्नमः ।
तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानां ज्योग् जीता अहताः स्याम स्वाहा ।।
ओ३म् पृथिवी द्यौः प्रदिशो दिशो यस्मै द्युभिरावृताः ।
तमिहेन्द्रमुपह्वये शिवा नः सन्तु हेतयः स्वाहा ।।
ओ३म् यन्मे किञ्चिदुपेप्सितमस्मिन् कर्मणि वृत्रहन् ।
तन्मे सर्वँ समृध्यतां जीवतः शरदः शतम् स्वाहा ।।
ओ३म् सम्पत्तिभूतिर्भूमिर्वृष्टिर्ज्यैष्ठ्यं श्रैष्ठ्यं श्रीः प्रजामिहावतु स्वाहा ।।इदमिन्द्राय इदन्न मम ।
ओ३म् यस्याभावे वैदिकलौकिकानां भूतिर्भवति कर्मणाम् ।
इन्द्रपत्नीमुपव्हये सीतां सा में त्वनपायिनी भूयात्कर्मणि कर्मणि स्वाहा ।। इदमिन्द्रपत्न्यै इदन्न मम ।
ओ३म् अश्वावती गोमती सूनृतावती बिभर्ति या प्राणभृताम् अतन्द्रिता ।
खलमालिनीमुर्वरामस्मिन् कर्मण्युपव्हये ध्रुवां सा में त्वनपायिनी भूयात् स्वाहा ।। इदं सीतायै इदन्न मम ।
ओ३म् सीतायै स्वाहा ।।
ओ३म् प्रजायै स्वाहा ।।
ओ३म् शमायै स्वाहा ।।
ओ३म् भूत्यै स्वाहा ।।
ओ३म् व्रीहयश्च में यावाश्च में माषाश्च में तिलाश्च में मुद् गाश्च में खल्वाश्च में प्रियङ्गवश्च मेंSणवश्च में श्यामाकाश्च में नीवाराश्च में गोधूमाश्च में मसूराश्च में यज्ञेन कल्पांताम् स्वाहा ।।
ओ३म् वाजो नः सप्त प्रदिशश्चतस्रो वा परावतः ।
वाजो नो विश्वैर्देवैर्धतसाताविहावतु स्वाहा ।।
ओ३म् वाजो नो अद्य प्रसुवाति दानं वाजो देवां ऋतुभिः कल्पयाति ।
वाजो हि मा सर्ववीरं जजान विश्वा आशा वाजपतिर्जयेयं स्वाहा ।।
ओ३म् वाजः पुरस्तादुत मध्यतो नो वाजो देवान् हविषा वर्धयाति ।
वाजो हि मा सर्ववीरं चकार सर्वा आशा वाजपतिर्भवेयं स्वाहा ।।
ओ३म् सीरा युंजन्ति कवयो युगा वि तन्वते पृथक् धीरा देवेषु सुम्नयौ स्वाहा ।।
ओ३म् युनक्त सीरा वियुगा तनोत कृते योनौ वपतेह बीजम् ।
विराजः स्श्नुष्टिः सभरा असन्नो नेदीय इत्सृण्यः पक्वमायवन् स्वाहा ।।
ओ३म् लाङ्गलं पवीरवत् सुशीमं सोमसत्सरू ।
उदिद्वपतु गामविं प्रस्थावद्रथवाहनं पीवरीं च प्रफर्व्यम् स्वाहा ।।
ओ३म् इन्द्रः सीतां निगृह्णातु तां पूषाभिरक्षतु ।
सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम् स्वाहा ।।
ओ३म् शुनं सुफाला वि तुदन्तु भूमिं शुनं किनाशा अनु यन्तु वाहान् ।
शुनासीरा हविषा तोशमाना सुपिप्पला ओषधीः कर्तमस्मै स्वाहा ।।
ओ३म् शुनं वाहाः शुनं नरः शुनं कृषतु लांगलम् ।
शुनं वरत्रा बध्यन्तां शुनमष्ट्रामुदिङ्गय स्वाहा ।।
ओ३म् शुनासीरेह स्म मे जुषेथाम् ।
यद्दीवि चक्रथुः पयस्तेनेमामुपसिञ्चतम् स्वाहा ।।
ओ३म् सीते वन्दामहे त्वार्वाची सुभगे भव ।
यथा नः सुमना असो यथा नः सुफला भुवः स्वाहा ।।
ओ३म् घृतेन सीता मधुना समक्ता विश्वैर्देवै रनुमता मरुद्भिः ।
सा नः सीते पयसाभ्याववृत्स्वोर्जस्वति घृतवत्पिन्वमाना स्वाहा ।।
ओ३म् इन्द्राग्निभ्यां स्वाहा ।। इदमिन्द्राग्निभ्यां इदन्न मम ।
ओ३म् विश्वेभ्यो देवेभ्यःस्वाहा ।। इदं विश्वेभ्यो देवेभ्यः इदन्न मम ।
ओ३म् द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा ।। इदं द्यावापृथिवीभ्याम् इदन्न मम ।
ओ३म् स्विष्टमग्ने अभि तत्पृणीहि विश्वांश्च देवः पृतना अभिष्यक् ।
सुगन्नु पन्थां प्रदिशन्न एहि ज्योतिष्मध्ये ह्यजरं न आयुः स्वाहा ।।
ओ३म् यदस्य कर्मणोSत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम् । अग्निष्टत्स्विष्टकृद्विद्यात्सर्वं स्विष्टं सुहूतं करोतु में अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्धय स्वाहा ।।इदमग्नये स्विष्टकृते इदन्न मम ।
पूर्णाहुति
ओ३म् सर्वं वै पूर्णं स्वाहा।
ओ३म् सर्वं वै पूर्णं स्वाहा।
ओ३म् सर्वं वै पूर्णं स्वाहा।
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यज्ञ प्रार्थना
यज्ञरूप प्रभो ! हमारे, भाव उज्जवल कीजिये |
छोड़ देवें छल कपट को, मानसिक बल दीजिये |।
वेद की बोलें ऋचाएं, सत्य को धारण करें |
हर्ष में हो मग्न सारे, शोक-सागर से तरें ||
अश्वमेधादिक रचायें, यज्ञ पर-उपकार को |
धर्म- मर्यादा चलाकर, लाभ दें संसार को ||
नित्य श्रद्धा-भक्ति से, यज्ञादि हम करते रहें |
रोग-पीड़ित विश्व के, संताप सब हरतें रहें ||
भावना मिट जाये मन से, पाप अत्याचार की |
कामनाएं पूर्ण होवें, यज्ञ से नर-नारि की ||
लाभकारी हो हवन, हर जीवधारी के लिए |
वायु जल सर्वत्र हों, शुभ गन्ध को धारण किये ||
स्वार्थ-भाव मिटे हमारा, प्रेम-पथ विस्तार हो |
‘इदं न मम’ का सार्थक, प्रत्येक में वयवहार हो ||
ध्यान धरकर शुद्ध मन से, वन्दना हम कर रहे |
‘नाथ’ करुणा-रूप ! करुणा, आपकी सब पर रहे ||
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ऋतुराज वसन्त का आविर्भाव हो चुका है। लगभग सवा मास व्यतीत हुआ है, जब उसकी अगवानी का उत्सव वसन्त पञ्चमी पर्व मनाया गया था, तब से अब प्रकृति की छटा में बहुत परिवर्तन आ गया है। उसका रूप दिनों दिन रम्य से रम्यतर होता जा रहा है। आज वसन्त श्री अपने यौवन पर है। वनोपवन और नगर-ग्राम में सर्वत्र उसका नयनाभिराम वरविकास मन को मोद से भर रहा है, चराचर जगत् ने इसी आनन्द से प्रफुल्लित होकर नवीन बाना बदल लिया है। वनोपवनों में नवविकसित कुसुमों की बहार है तो खेतों में परिपक्व यव और गोधूम के शस्यों की सुनहरी सरिता तरंगित हो रही है। पशुओं ने नवीन रोमावली के चित्र विचित्र अभिनव परिधान धारण किये हैं। पक्षिसमूह ने भी पुराने पर झाड़कर नूतन पक्षावली का परिच्छद पहना है। उनकी चारु चहचहाहट में सुन्दर सरसता का संचार हो गया है। कलकण्ठा कोकिला की कूक, मयूर की केका, तरुण तित्तिरि (तीतर) का तारस्वर तथा कलकूजन, कपोत का कलरव वायुमण्डल को मधुरिमा से परिपूर्ण कर रहा है। मलयाद्रि का धीर सुगन्ध समीर अठखेलियाँ करता चल रहा है। ऐसे उदार और मनोहर सुसमय में आषाढ़ी सस्य के शुभागमन की शुभाशा भारत की प्रधान जनता और सबके अन्नदाता कृषक समूह के मन में मोद भर देती है।
आषाढ़ी-शस्य (साढ़ी) की फसल भारत की सब फसलों में सर्वश्रेष्ठ है। वह सब फसलों की सिरमौर गिनी जाती है। भारत में अकाल पड़ने पर साढ़ी बहुत ही कम मारी जाती है, वह केवल भूखे भारत का ही पेट नहीं भरती, प्रत्युत पूर्व समय में सभी धन-धान्य समृद्ध यूरोप आदि विदेशों को भी करोड़ों मन अन्न पहुँचाती थी। ऐसे जीवनाधार सर्वपालकं सस्य की अवाई पर कृषकों का मन, जिन्होंने आषाढ़ से लेकर वर्षाभर कड़ी जुताई करके अपने खेतों की तैयारी की थी, आनन्द से क्यों न बल्लियों उछलने लगें।
इस अवसर पर उनका आनन्दोत्सव और रंगरेलियाँ मनाना स्वाभाविक ही है। यह भारतवर्ष की ही विशेषता नहीं, प्रत्युत अन्य देशों में भी नवशस्य के प्रवेश पर पर्व और उत्सव मनाये जाते हैं। ऋक्षराज रूस के हिमाच्छादित देश में फसल काटने पर कृषक अपने इष्ट-मित्रों को पक्वात्र से परितृप्त करके उत्सव मनाते हैं। भुवन-भास्कर की भूमि जापान में भी, जब धानों की फसल कटती है, तब धान की सुरा और चावलों की रोटियों के सहभोज होते हैं और गानवाद्यपूर्वक पर्व मनाया जाता है। यूरोप में सेण्ट वेलण्टाइन (St. Valentine’s day ) का दिन और इंग्लैण्ड में मे पोल (May Pole) के उत्सव ग्रामीण कृषक जनता में ही जाग्रत हैं। उनकी सीधी-सादी सरल जीवन प्रणाली में ही उनका आदर होता है। विविध प्रकार के उद्योग-धन्धों में फँसे हुए, जीवन की घुड़दौड़ में रात-दिन व्यस्त, स्वार्थान्ध नागरिकों में इस प्रकार के उत्सवों के लिए उत्साह ही उत्पन्न नहीं होता।
किन्तु भारतीय उत्सव केवल आमोद-प्रमोद का ही साधन नहीं हैं। धर्मपरायण भारतीयों की प्रत्येक बात में धार्मिकता और वैज्ञानिकता की पुट लगी हुई है। जिस प्रकार वर्षाऋतु के चातुर्मास्य (चौमासे) के पश्चात् विकृत गृहों के परिमार्जन (लिपाई-पुताई) के लिए तथा शारद नवऋतु के प्रवेश पर, नवाविर्भूत रोगों के प्रतीकारार्थ होम यज्ञ द्वारा वायुमण्डल की संशुद्धि, नवप्रविष्ट शीतकाल के निवारक परिधानों के परिवर्तन और नवप्राप्त श्रावणी सस्य के नवीन अन्न, धानों की लाजाओं के होमने के लिए शारदीय नवसस्येष्टि (दीपावली) का पर्व नियत है, उसी प्रकार शीतकालीन वर्षा (मुहासा) के अनन्तर-मुहासा भी एक प्रकार का चौमासा ही समझा जाता है। आवासों की परिष्कृति के लिए तथा वसन्त की नई ऋतु बदलने पर अस्वास्थ्य के प्रतिरोधार्थ हवन से वातावरण के संस्कारार्थ, नवागत ग्रीष्मोचित हलके-फुलके श्वेत वस्त्रों के बदलने और नई आई हुई आषाढ़ी फसल के यवों (जौओं) से देवयज्ञ करने के लिए आषाढ़ी नवशस्येष्टि अभिप्रेत है।
(इसके प्रमाण श्रावणी नवान्त्रेष्टि (दीपावली) के प्रकरण में देखिए।) संस्कृत में अग्नि में भूने हुए अर्द्ध-पक्व अन्न को ‘होलक’ कहते हैं। इस विषय में निम्नलिखित प्रमाण द्रष्टव्य हैं
‘तृणाग्निभृष्टार्द्धपक्वशमीधान्यं होलकः । होला इति हिन्दी भाषा ।
‘ अर्द्धपक्वशमी धान्यैस्तृणभृष्टैश्च होलकः । (शब्दकल्पद्रुमकोश:)
होलकोऽल्पानिलो, मेदःकफदोषश्रमापहः ॥
भवेदथो होलको यस्य स तत्तद्गुणो भवेत् ।(भावप्रकाश)
अर्थ-तिनकों की अग्नि में भूने हुए अधपके शमीधान्य (फलीवाले अन्न) को ‘होलक’ (होला) कहते हैं। होला स्वल्पवात है और मेद (चर्बी), कफ और श्रम (थकान) के दोषों को शमन करता है। जिस जिस अन्न का होला होता है, उसमें उसी अन्न का गुण होता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि आदि में तृणाग्नि में भूने आषाढ़ी के प्रत्येक अत्र के लिए’होलक’ शब्द प्रयुक्त होता था, किन्तु पीछे से वह शमीधान्यों (फलीयुक्त) के होलों के लिए ही रूढ़ हो गया था। हिन्दी का प्रचलित ‘होला’ शब्द इसी का अपभ्रंश है। आषाढ़ी नवान्नेष्टि में नवागत अधपके चवों के होम के कारण उसको ‘होलकोत्सव’ कहते थे। उसमें होलक या होले हुतशेष रूप से भक्षण किये जाते थे और उनके सत्तू (सक्तु) का प्रयोग भी इसी पर्व में प्रारम्भ होता था। सत्तू ग्रीष्म का विशेष आहार है और उसके पित्तादि दोषों को शमन करता है। जैसाकि कई अन्य पर्वों के वर्णन में बतलाया जा चुका है, भारतीयों के विशेष-विशेष पर्व विशेष-विशेष आहारों के प्रयोगों के आरम्भ के लिए निर्दिष्ट हैं। उसी प्रकार यह होलकोत्सव होलों और उनके बने हुए सत्तुओं के उपयोग के लिए उद्दिष्ट है।
वैदिक धर्मावलम्बियों में प्राचीन काल से यह प्रथा चली आती है कि नवीन वस्तुओं को देवों को समर्पण किये बिना अपने उपयोग में नहीं लाया जाता है। जिस प्रकार मानव देवों में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार भौतिक देवों में अग्नि सर्वप्रधान है। वह विद्युत् रूप से ब्रह्माण्ड में व्यापक है और भूतल पर साधारण अनल, जल में बड़वानल, तेज में प्रभानल, वायु में प्राणापानानल और सर्व प्राणियों में वैश्वानर के रूप में वास करता है। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्णजी कहते हैं—–
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥
अर्थ—मैं प्राणियों में वैश्वानररूप होकर देह के आश्रय रहता हूँ और प्राणापान वायु के साथ मिलकर चार प्रकार के (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य) अन्न को पकाता हूँ।
देवयज्ञ का प्रधान साधन भौतिक अग्रि ही है, क्योंकि वह सब देवों का दूत है। वेद में उसको अनेक वार ‘देवदूत’ कहा गया है। वही सब देवों को होमे हुए द्रव्य पहुँचाता है, इसलिए नवागत अत्र सर्वप्रथम अग्नि के ही अर्पण किये जाते हैं और तदनन्तर मानवदेव ब्राह्मणों को भेंट करके अपने उपयोग में लाये जाते हैं।
श्रुति कहती है—‘केवलाघो भवति केवलादी।’
अर्थ- अकेला खानेवाला केवल पाप खानेवाला है।
मनु महाराज इसी का समर्थन इस प्रकार करते हैं —
अघं स केवलं भुङ्क्ते यः पचत्यात्मकारणात् ।
यज्ञशिष्टाशिनं ह्येतत् सतामन्नं विधीयते ॥
अर्थ- जो पुरुष केवल अपने लिए भोजन पकाता है, वह पाप भक्षण करता है। यज्ञशेष वा हुतशेष ही सज्जनों का (भोक्तव्य) अन्न विधान किया गया है।
इसलिए अब तक भी जनसाधारण में यह प्रथा प्रचलित है कि
जब तक नवीन अन्नों वा फलों को पूजा के प्रयोग में न लाया जाए, तब तक उनको लोकभाषा में ‘अछूत वा छूते’ कहते हैं।
तदनुसार ही आषाढ़ी की नवीन फसल आने पर नये यवों को होमने के लिए इस अवसर पर प्राचीन काल में नवशस्येष्टि, होलकेष्टि वा होलकोत्सव होता था।
जहाँ प्रत्येक गृह में पृथक्-पृथक् नवशस्येष्टि की जाती थी, वहाँ प्रत्येक ग्राम में सामूहिक रूप से सम्मिलित नवशस्येष्टि भी होती थी और उसमें सब लोग अपने-अपने घरों से यवादि आहवनीय पदार्थ लाकर चढ़ाते थे। वर्त्तमान समय में काष्ठ और कण्डों (उपलों) के ढेरों. के रूप में होली जलाने की प्रथा प्राचीन सामूहिक नवशस्येष्टियों का विकृत रूप है। उसमें आहवनीय सामग्री का हवन तो कुटिल काल की गति में लुप्त हो गया है और केवल काष्ठ तथा अमेध्य द्रव्यों का जलाना और यवों की बालों का भूनना रूढ़ि वा लकीर के रूप में रह गया है।
इस आषाढ़ी नवात्रेष्टि का उपर्युक्त देवयज्ञ द्वारा देवपूजन विद्वत् समादर, वायु-संशोधन, गृह-परिमार्जन तथा नवीन वस्त्र परिवर्तन धार्मिक और वैज्ञानिक स्वरूप है। इस अवसर पर गान-वाद्य द्वारा आमोद और हर्षोल्लास तथा इष्टमित्रों का सप्रेम सम्मेलन उसके आनुषङ्गिक उपयोगी लौकिक अङ्ग हैं। जो समय हमारे लिए वर्षभर तक अन्न प्रदान करते रहने की व्यवस्था करता है, उसको मंगलमूल वा सौभाग्यसूचक समझकर उसपर परमेश्वर के गुणानुवादपूर्वक आनन्दोत्सव मनाना स्वाभाविक ही है। परस्पर प्रेम परिवर्धन का भी यह बड़ा उपयुक्त अवसर है।
इस पर्व पर सब लोग ऊँच-नीच, छुटाई-बड़ाई का विचार छोड़कर स्वच्छ हृदय से आपस में मिलते हैं। यदि किसी कारणवश वर्ष में वैर विरोध ने मनों को अपना आवास बना लिया है तो उनको अग्निदेव की साक्षी में भस्मसात् कर दिया जाता है, अत: होली प्रेमप्रसार का पर्व है। यह दो फटे हृदयों को मिलाती है, एकता का पाठ पढ़ाती है, यह वर्षभर प्रेम में तन्मय हो जाने का सबसे उत्तम साधक है। आज घर-घर मेल मिलाप है, घर-घर वर्षभर के वैरी एक-दूसरे को गले लगाकर फिर भाई-भाई बन जाते हैं। आज बालवृद्ध वनिताओं की उछाहभरी उमंगें कलह-कालुष्य और वैमनस्य के विकारों का विलोप कर देती हैं। होली के शुभ अवसर पर भारत में हर्ष की कल्लोल-मालाएँ उठती हैं। यह पर्व प्रत्येक हिन्दू के घर भारतवर्ष में इस सिरे से उस सिरे तक समान रूप में मनाया जाता है।
होली का पवित्र पर्व वस्तुत: आनन्द और उल्लास का महोत्सव था, किन्तु काल की कराल गति से आजकल उसमें भी कदाचार और अभद्र दृश्य प्रवेश पा गये हैं। आजकल जिस प्रकार से हमारे हिन्दूभाई होली मनाते हैं, उसको देखकर क्या कोई भी बुद्धिमान, धार्मिक पुरुष यह मान सकता है कि यह होली जिसको देखकर शिक्षित और सज्जन विदेशी लोग हमें नीमवहशी (अर्द्ध बर्बर) का खिताब देते हैं, हमारे उन्हीं पूर्वपुरुषों की चलाई हुई हो सकती है कि जिनकी विद्या और बुद्धि को देखकर सारा संसार विस्मित है और जिनके रचित ग्रन्थों और शिल्प-निर्माणों को देखकर क्या स्वदेशी और क्या विदेशी सभी सहस्र मुख से उनकी उच्च सभ्यता की प्रशंसा करते हैं। क्या आजकल होली में गाली-गलौज या बकवास और अश्लील शब्दों का उच्चारण हमारे उन ऋषियों और ब्राह्मणों का चलाया हो सकता है, जिनके सिद्धान्त में मन में भी ऐसे अश्लील और जघन्य विचारों का सोचना तक पाप समझा जाता है? क्या आजकल की होली में बड़े भाइयों की स्त्रियों वा भाभियों से होली खेलना वा दूसरे शब्दों में कुचेष्टाएँ करना उन आर्यपुरुषों का चलाया हो सकता है, जो भाभियों को माता के समान समझते थे और उनको प्रणाम करते हुए भी उनके चरणों को छोड़ कर उनके अन्य अंगों पर दृष्टिपात तक करना पाप समझते थे।
देखिए, जिस समय श्रीमती सीता को रावण चुरा ले गया था, तब वे विलाप करती हुई अपने आभूषण और चीर मार्ग में फेंकती गई थीं। ये आभूषण एक पोटली में बन्धे हुए सुग्रीव के महामन्त्री हनुमान् ने उठाये थे।
वाल्मीकि रामायण, अरण्यकाण्ड सर्ग ५४, श्लोक ९३-९४ के अनुसार ‘एक पर्वत पर बैठे हुए पाँच वानरों को देख सीता ने अपना रेशमी दुपट्टा और मांगलिक आभूषण उतार दुपट्टे में बाँध उन वानरों के मध्य इस आशा से फेंक दिये कि सम्भव है, ये राम को मेरा वृत्तान्त बता सकें। जल्दी के कारण रावण सीता के इस कार्य को देख नहीं सका।’
किष्किन्धा काण्ड सर्ग ६, श्लोक १२५ से १३२ तक सुग्रीव द्वारा दुपट्टे में बँधे हुए आभूषणों का जब वर्णन किया गया और राम के आग्रह पर सुग्रीव उन आभूषणों को दिखाने के लिए राम के पास लाया, तब शोकसंतप्त, रघुकुलनायक, मर्यादापुरुषोत्तम श्री रामचन्द्रजी अपने प्रिय भ्राता श्री लक्ष्मणजी से पूछते हैं कि भ्राता, देखो तो ये चीर और आभूषण तुम्हारी भाभी के ही हैं ? श्री लक्ष्मण यति के उत्तर को आदिकवि श्री वाल्मीकि ऋषि यों वर्णन करते हैं
नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्डले।
नूपुरे तु विजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात् ॥
– वा० रामायण कि० काण्ड, सर्ग ६, श्लोक १३४ आजकल भाभियों से होली खेलने के रसिया क्या उन्हीं मर्यादा पुरुषोत्तम राम और लक्ष्मण यति के कुल से होने का अभिमान कर सकते हैं कि जिनका कथन ऊपर उद्धृत किया गया है? फिर आजकल होली में जो आर्यसन्तान मद्य, भाँग और दूधिया पीकर उन्मत्त होते हैं (दूध-जैसे अमृत समान पदार्थ को भांग जैसे मादक और बुद्धिनाशक द्रव्य में मिलाकर अनर्थ करते हैं) बुद्धि जैसे उत्तम और धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के देनेवाले पदार्थ का नाश करके ईश्वर के अपराधी बनते हैं। उनसे बढ़कर और कौन पाप का भागी बन सकता है ? बुद्धि सा बहुमूल्य और श्रेष्ठ पदार्थ इस संसार में कोई दूसरा नहीं है। यह ईश्वर की देनों में से सबसे उत्तम देन है। बिना बुद्धि के लौकिक और पारमार्थिक कोई भी काम सिद्ध नहीं हो सकता, इसलिए बुद्धि की शुद्धि के लिए प्रत्येक वैदिकधर्मी गायत्री में ईश्वर से नित्य प्रार्थना करते हैं कि ‘धियो यो नः प्रचोदयात् ।’ अर्थात् वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे। उस बुद्धि को होली में नशा पीकर भ्रष्ट और मलीन करनेवाले क्या कभी ऋषि मुनियों के माननेवाले और धर्मानुयायी हो सकते हैं, जिनके अग्रगन्ता महर्षि मनु ने अपने धर्मशास्त्र में मद्यपों के लिए यह प्रायश्चित्त बतलाया —
सुरां पीत्वा द्विजो मोहादग्निवर्णां सुरां पिबेत् ।
तथा स काये निर्दग्धे मुच्यते किल्बिषात्ततः ॥
अर्थ-मद्य पीनेवाला पापी अग्नि से तपाई हुई मद्य पीकर स्वशरीर को नष्ट कर देवे।
जिस मद्यपान के लिए कठिन प्रायश्चित्त मनु भगवान् ने रक्खा है और उसकी महापातकों में गणना की है, आप समझ सकते हैं कि उससे बढ़कर कौन महापाप हो सकता है? कोई भंगड़ वा भंग पीनेवाला शायद यह शंका करे कि मनु महाराज ने तो स्वनिषेध वाक्य में केवल सुरा-मद्य शब्द का प्रयोग किया है, इसमें भाँग आदि का निषेध कहाँ से आ गया? ऐसी शंका करनेवाले महाशयों को सुश्रुताचार्य का यह वाक्य भी सुन रखना चाहिए-‘बुद्धि लुम्पति यद् द्रव्यं मदकारि तदुच्यते।’, अर्थात् जो पदार्थ बुद्धि का नाश करे उसको मदकारि वा ‘मद्य’ कहते हैं। आप स्वयं सोच सकते हैं कि भाँग आदि जितने भी नशे हैं उनमें क्या कोई बुद्धि को बढ़ाता भी है ? यदि आप विचारेंगे और यूरोप आदि विदेश के डॉक्टरों और स्वदेशी वैद्यों तथा हकीमों की इस विषय में लिखित सम्मतियाँ देखेंगे तो आपको विदित होगा कि सब नशे न केवल बुद्धि का ह्रास ही करते हैं, किन्तु शरीर आदि का भी नाश कर डालते हैं।
कैसे खेद और शोक की बात है कि जिन लोगों का मद्य और मांस जातीय आहार समझा जाता था, वे तो उसको छोड़ते जाते हैं और ऋषि सन्तान उनका ग्रहण करती जाती है और फिर होली जैसे पवित्र पर्वों और उत्सवों को उनके प्रयोग से कलंकित और दूषित कर रही है। क्या हमारी होली की राक्षसीय लीलाओं को देखकर कोई भी विश्वास कर सकता है कि हम उन्हीं ऋषियों की सन्तान हैं, जिनकी विद्वत्ता, शूरवीरता, धर्मपरायणता का लोहा संसार मान रहा है। आजकल होली के अवसर पर ग्रामों में जो नवाब बनाकर निकाला जाता है क्या इससे बढ़कर भी कोई अमांगल्य और अभद्र दृश्य हो सकता है ? हमारे धर्मपरायण राम, कृष्ण, भीष्म, द्रोण, युधिष्ठिर आदि पूर्वपुरुषों की आत्माएँ हमारे इन दुश्चरित्रों को देखकर क्या कहती होंगी?
यह तो कुपढ़ों और निपट गँवारों अथवा अर्द्ध-शिक्षितों की लीलाएँ हुई। शिक्षित और सभ्यम्मन्य भी हिन्दुत्व और हिन्दू त्यौहारों की रक्षा की दुहाई देते हुए होली में वे हुल्लड़ मचाते हैं कि जिनको देखकर लज्जा को भी लज्जा आती है। वे अपने इष्ट-मित्रों, साथी-संगियों के वर वस्त्रों को लाल रंग से लथपथ करते उनके मुँह पर गुलाल लपेट कर तथा आँखों में अबीर झाँककर उनकी वह दुर्गत बनाते हैं कि उसको देखकर दया आती है। अब यह हुड़दंगापन नवीन सभ्यता के प्रचार से कुछ कम हो चला है, किन्तु दस-बीस वर्ष पूर्व तो हिन्दुओं के तीर्थस्थान-मथुरा, काशी, हरिद्वार आदि नगरों में तो किसी भलेमानस पथिक को अपने बहुमूल्य श्वेत वस्त्र लाल रंग से अछूते लेकर निकलना असम्भव था।
इस आधुनिक रंग बखेरने और गुलाल उड़ाने की कुप्रथा का मूल प्राचीन काल में यह प्रतीत होता है कि पुराने भारतवासी इस आमोद प्रमोद के पर्व पर कुसुमसार (इत्र) आदि सुगन्धित द्रव्यों को परस्पर उपहाररूप से व्यवहार में लाते थे। सम्भव है कि सम्मिलित मित्रमण्डली पर गुलाबपाश वा पिचकारियों द्वारा गुलाब जल छिड़का जाता हो और यतः इस वसन्तऋतु के अवसर पर सब वसन्ती बाना वा पीताम्बर धारण किये होते थे, इसलिए अनुमान होता है कि केशर घुले हुए गुलाब जल का छिड़काव होता हो। उससे पीतवस्त्रों के बिगड़ने की कुछ आशंका न होती होगी। आजकल के विकृत विदेशी लाल रंग का यही मौलिक शुद्ध स्वरूप अनुमान होता है। गुलाल का मूल भी पुष्प का पराग वा पुष्पों की पत्तियों का चूर्ण होगा, जो पटवासक के रूप में काम में लाया जाता होगा। यही बिगड़ कर आजकल लाल पुड़िया से चावलों के चूर्ण (आटे) के रूप में गुलाल बन गया है और आँखों को अन्धा करने और मानवमुखों को लाल वानरमुखाकृति कर देने के अतिरिक्त उसका कुछ भी उपयोग नहीं है। ये सारी अमर्यादित रंगरेलियाँ भारतीयों के उस विलासिता और कामक्रीड़ा के युग में प्रचलित हुई थीं, जबकि लक्ष्मी के लालों को इन्द्रियारामता और विषयवासना की तृप्ति के अतिरिक्त और कुछ न सूझता था। इस काम केलि के काल में ही वसन्त और होलिका के पवित्र प्रमोदपूर्ण ऋतूत्सव मदनोत्सव के रूप में परिणत हुए थे। जिनका विस्तृत वर्णन कविकुलगुरु कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुन्तल’ और ‘मालविकाग्निमित्र’ तथा श्रीहर्ष की ‘रत्नावली’ में विद्यमान है। श्रीकृष्ण चरित्र को कलंकित करनेवाले ब्रजमण्डल की उच्छृङ्खल होली का सूत्रपात भी इसी कामकौतुकप्रियता के कलुषित काल में हुआ था, जो भारत के आशावलम्बन सैकड़ों युवा-युवतियों को पापपंक में निमग्न करके उनके सर्वनाश का हेतु होती है। होलिकोत्सव की इन्हीं पाशविक-वृत्तियों वा अविद्यादानवी के विलासों के वश वह विद्याशून्य शूद्रों का पर्व कहलाता था वा सम्भव है कि आमोद-प्रमोद की अपेक्षाकृत मन की नीचवृत्तियों के विकास के कारण ही वह आर्यपर्वावली में चातुर्वर्ण्य में अवरिष्ठ समझे जानेवाले शूद्र का स्थानी शूद्रपर्व माना जाता हो।
प्राचीनकाल में होलिकोत्सव के आनन्दावसर पर शिक्षाप्रद अभिनयों के खेलने की भी रीति प्रचलित थी। भारत में दृश्यकाव्य वा अभिनयकला का प्रचार स्मरणातीत समय से चला आता है और उसने संस्कृत साहित्य के मध्यकालीन अभ्युदय काल में बहुत उन्नति की थी। यह कला मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा प्रदान का अमोघ साधन है, किन्तु भारत के अविद्यान्धकार के प्रसार के साथ-साथ उस कला की भी अवनति होती गई और वह इस समय केवल पाशविक वृत्तियों की उत्तेजना का साधन रह गई है। आजकल होली के अवसर पर भद्दे स्वांग निकाले जाते हैं, वे इन्हीं अभिनयों के विकृत रूप हैं। यदि उनको सुधारकर शुद्धस्वरूप में पुनः प्रचलित किया जाए तो उनसे जनसाधारण में उत्तम आदर्श के साथ-साथ सुरुचि और सुभाषा-प्रसार का अच्छा काम लिया जा सकता है। बङ्गप्रदेश में परिमार्जित बङ्गभाषा का प्रचार वहाँ सुललित पदों में अभिनीत नाटकों और यात्राओं द्वारा ही हुआ था। परम्परागत पुरानी उपादेय प्रथाओं वा संस्थाओं का लोप न करके उनको परिष्कृत रूप में प्रचलित करने से जनता का प्रचुर उपकार हो सकता है। सर्वसुधारों के समर्थक आर्यपुरुषों का ही यह भी कर्त्तव्य है कि वे होलिकोत्सव का उसके आनुषङ्गिक अङ्गोंसहित समुचित सुधार करके उसको परिमार्जित और पवित्र रूप से जनता में पुनः प्रचारित करें। प्रत्येक आर्यगृह में इस अवसर पर इस पद्धति के विधानानुसार करें। पौर्णमासेष्टि और नवान्नेष्टि होनी चाहिए और प्रत्येक आर्यपुरुष को वैर-विरोध विसारकर सब आर्यभाइयों से प्रीतिपूर्वक मिलकर प्रेम बढ़ाना चाहिए। इस समय संगीतमण्डलियों द्वारा श्रवणसुखद गीतवाद्य से हर्षोल्लास के प्रकाश और ईशगुणानुवाद से आत्मा के उत्कर्ष का आयोजन होना चाहिए।
पौराणिकों में होलिकोत्सव के विषय में यह कथा प्रचलित है कि इस अवसर पर अत्याचारी दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने अपने परमेशप्रेमी पुत्र प्रह्लाद के सजीव दाह के लिए अपनी मायाविनी भगिनी होलिका द्वारा चिता रचवाई थी। उसने सोचा था कि होलिका अपनी राक्षसी माया (हथकण्डों) से प्रह्लाद को जलवाकर आप चिता में से बचकर सुरक्षित निकल आएगी, किन्तु परमात्मा की असीम भक्तवत्सलता के कारण भक्तशिरोमणि सत्याग्रही प्रह्लाद का तो बाल भी बाँका न हुआ और राक्षसी होलिका ही उस चिता में भस्मसात् हो गई। उसी दिन से होलिका राक्षसी के दाह और भक्त प्रह्लाद के सुरक्षित रहने के उपलक्ष्य में होलिकोत्सव प्रचलित हुआ। इस पौराणिक दन्तकथा से भी हम सत्य-दृढ़ता वा सत्याग्रह की शिक्षा ले सकते हैं। संकटों का सागर उमड़े, आपत्तियों की आँधी चले, लोकनिन्दा की नदियाँ बहा दें, चाहे स्तुति के पहाड़ खड़े करें, परन्तु एक सत्यव्रती का कर्त्तव्य है कि वह अपने निश्चित पथ से कभी विचलित न हो। यदि पिता वा अन्य गुरुजन “भी ” सत्यपथ से हटाकर कुमार्ग की ओर ले जाएँ तो उनकी बात भी न माननी चाहिए।
होली हमें सत्याग्रह के विजय का भी स्मरण दिलाती है। उसके द्वारा जहाँ जनता में नई उमंग, अपूर्व आशा एवं असीम आह्लाद का आविर्भाव होता है, वहाँ उससे धार्मिक और राष्ट्रीय आदर्शों की ज्वलन्त जागृति भी होती है।
भवानी प्रसाद ( आर्य पर्व पद्धति )
मत बैठे वसन्त निहारो,
उठो होली खेलो उमंग बगारो ॥ टेक ॥
फूला फाग प्रेम रसिकों को, प्रीति पसार पुकारो।
मित्रो, परता त्याग आग में झगड़े झाड़ पजारो ॥ १ ॥
उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥
नवल पत्र पाये वृक्षों में निरखो आँख उधारो।
यों प्यारी उजड़ी जनता को कर प्रसन्न शृङ्गारो ॥ २ ॥
उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥
पूरा मेल करो आपस में वैर विरोध विसारी।
भेद भिन्नता पास न झाँके ऐक्य प्रयोग पसारो ॥ ३ ॥
उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥
सत्यागार बना लो मन को, मधुर वाक्य उचारो।
त्याग प्रसाद धर्म के द्वारा, कर्म-कलाप सुधारो ॥ ४ ॥
उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥
गूदा एक फाँक दस भासें, ऊर्वारुक इव यारो।
शुद्ध भीतरी ऐक्य भाव पै, असदनेकता वारो ॥ ५ ॥
उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥
देखो विपदा-वैतरणी को, धीर न हिम्मत हारो।
बन कैवर्त्त नीति-नैया के सबको पार उतारो ॥ ६ ॥
उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥
मार सहो निर्दय दुष्टों की, परन्तु न किसी को मारो।
ऐसे तप से पा सकते हो, जीवन के फल चारों ॥ ७ ॥
उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥
दास, गुप्त, वर्मा, शर्मा, सब अन्त्यज, डोम चमार ।
हिंसा हीन असहयोगी हो, कष्ट-कंटक संहारो॥ ८ ॥
उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥
वीर! कहो अन्याय दम्भ को, न्याय नृसिंह बिदारौ।
दीन-देश प्रह्लाद भक्त को, सौंप स्वराज्य उबारौ ॥ ९ ॥
उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥
धर्म, दया आनन्द लोक में, निशि वासर विस्तारो।
आर्यजाति को पारतन्त्र्य की अवनति से उद्धारो ॥ १० ॥
उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥
भाई! जीवन को भारत के भाल स्वतिलक पै वारो।
‘शंकर’ श्री गुरु गाँधीजी का, गौरव ज्ञान-प्रचारो ॥ ११ ॥
उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥
-कविवर श्री पण्डित नाथूराम शर्मा ‘शंकर’
चाव में डूबे उमंगों में भरे भावों-ढले।
गान के वर गौरवों की भू बना अपने गले।
कौतुकों की मूर्तियाँ बनकर बितानों के तले।
भूति-न्यारी भावुकों की भाल पर अपने मले।
जो परब त्योहार अपने हैं मनाते हो मगन।
हैं बड़े वे भाग वाले हैं धरा वे धन्य जन।1।
हैं उठाते देश-नभ के अंक में आनन्द घन।
वे प्रफुल्लित हैं बनाते जाति जीवन का बदन।
हैं खिलाते वे परस्पर प्यार के सुन्दर सुमन।
हैं दिखाते खोलकर वे सभ्यता संचित रतन।
हैं बड़ी ही बुध्दि से त्योहार बसुधा में रचित।
चारुता से वे विभव जातीय करते हैं विदित।2।
जब सजा नव पल्लवों के पुंज से विटपावली।
जब रसालों में लगा कर मंजरी सोने ढली।
जब बना छोटी बड़ी सब डालियाँ फूलीं फलीं।
हाथ में जब ले अनूठे रंग की मंजुल कली।
झूमता ऋतुराज आता है सरसता में सना।
रंजिता, आमोदिता, आनंदिता, भू को बना।3।
मत्त होकर गूँजता है जब निकुंजों में भ्रमर।
है सुनाती कूककर जब कोकिला स्वर्गीय स्वर।
बोल करके बोलियाँ मीठी रसीली मुग्ध कर।
जब विहग-गण है दिशाओं को बनाते मंजु तर।
जब मलय-मारुत बड़ी ही चारुता के साथ चल।
है बहा देता उरों में मत्तता धारा प्रबल।4।
देख करके खेत को अपने सुअन्नों से भरा।
जब किसानों का हृदय तल है बहुत होता हरा।
की गयी थी जो कमाई कर अवनि को उर्बरा।
जब सुफल उसका उन्हें है मुग्ध हो देती धरा।
झोंपड़ी में राजभवनों तक सुआशाएँ फला।
है विलसती दीखती सम्पन्नता की जब कला।5।
तब उठेगी क्यों नहीं उर में विनोदों की लहर।
क्यों न जावेगी रुधिर में प्राणियों के ओजभर।
रंग लावेंगी उमंगें क्यों नहीं बन चारु तर।
चौगुना हो चाव चित्तों में करेगा क्यों न घर।
ढंग में ढल कर इन्हीं के पर्व होली का बना।
जो बड़ा ही है अनूठा औ सरसता में सना।6।
जिस दिवस को गात छू प्रहलाद का पावन परम।
होलिका का अंक पावक से हुआ था पुष्प सम।
है यही फागुन सुदी पूनो, दिवस वह मंजु तम।
है इसी से हो गया त्योहार यह अधिकानुपम।
जिस दिवस को पुण्य-जन की बात वसुधा में रही।
जाति जीती उस दिवस को मान देगी क्यों नहीं।7।
धान्य कटने के समय सब देश का है यह चलन।
लोग करते हैं विविधा उत्सव बना उत्फुल्ल मन।
मान देते हैं बरस के आदि दिन को सर्व जन।
है हुआ इस सूत्र से भी पर्व होली का सृजन।
हैं बड़े उत्साह से उसको मनाते निम्न जन।
है उसे कहते इसी से पर्व उनका विज्ञ-गन।8।
वृध्दि पाती है शिथिलता शीत की जब नित्य प्रति।
पेड़ तक को है बनाता बहु सरस जब बार-पति।
तब इधार है ओजमय होता रुधिर हो क्षिप्र-गति।
व्याधियाँ उत्पन्न होकर हैं उधार लाती विपति।
है इसी से यह व्यवस्था लोग हो उत्सव निरत।
चित रखें उत्फुल्ल, पैन्हें वर वसन हों मोद-रत।9।
यह बड़ा ही भावमय त्यौहार है जैसा मधुर।
वैसे ही है देश-व्यापी औ विमोहक लोक-उर।
दीखती इस पर्व में है मत्तता इतनी प्रचुर।
है उमग पड़ता परम उससे नगर, गृह, ग्राम, पुर।
इन दिनों उठती है उस आनन्द की उर में लहर।
रंजिशें जो हैं बरस दिन की मिटाती अंक भर।10।
आज दिन रोते हुओं को लोग देते हैं हँसा।
मोद देते हैं व्यथामय मानसों में भी लसा।
जिन कुचालों में समाज विमोह-वश है जा फँसा।
हैं विमूढ़ों को जगा देते उन्हें दृग में बसा।
स्वांग लाकर सैकड़ों नाना स्वरूपों को बना।
भावमय गीतादि से जातीय-दोषों को जना।11।
डालकर के रंग रँगते हैं न केवल तन वसन।
हैं डुबा देते परम अनुराग में भी मत्त मन।
कुमकुमों को मार मंजु गुलाल मीड़ित कर बदन।
हैं सुरंजित सा बनाते भव्य-भावुकता भवन।
जा घरों पर खा खिला आमोद से मिलकर गले।
मुग्धा होते हैं परम पा प्रेम के पादप फले।12।
इन दिनों जैसा गमकता है मुरज, बजता पनव।
वेणु वीणा आदि जैसा हैं सुनाते मंजु रव।
कंठ जैसा है दिखाता ओज, पा माधुर्य्य नव।
है स्वरों में जिस तरह का सोहता स्वारस्य जव।
सालभर वैसा मनोहर रंग दिखलाता नहीं।
है गगन रस सा बरसता, मोद सरसाती मही।13।
हैं सरव होती रसीले कंठ से सड़कें सकल।
चौहटा चौपाल में है नित्य होता गान कल।
है गली-कूँचों विचरता गायकों का मत्त दल।
झोंपडे होते धवनित हैं, गूँज उठते हैं महल।
स्वर सरसता है बड़ी सुकुमारता से सब समय।
पेड़ तक की डालियाँ होती हैं मंजुल-नाद-मय।14।
अंग, वंग, कलिंग होते हैं प्रमोदों में निरत।
नाच उठता है सकल पंजाब हो आमोद रत।
यह हमारा युक्त प्रान्त प्रमत्त होता है महत।
है मनाता मोद राजस्थान हो उन्मत्तवत।
डूब जाती है विनोदों बीच भारत की धरा।
ब्रज उमग पड़ता है, हो जाता है हरियाना हरा।15।
काल पाकर यह रुचिर त्योहार भी कलुषित हुआ।
कसबियों का नाचना, गाना अधिक प्रचलित हुआ।
गालियाँ बकना बहकना मद्यपान विहित हुआ।
डाल देना कीच, कालिख पोतना, समुचित हुआ।
ओज औ माधुर्य्य में बीभत्स आ करके मिला।
पाटलों के पुंज-बीच प्रसून विम्बा का खिला।16।
किन्तु इस त्योहार में तो भी दिखाती वह झलक।
उस परस्पर प्यार की जिसमें रहे सच्ची ललक।
नव उमंगों के सहित आमोद उठता था छलक।
सो गयी जातीयता भी खोल देती थी पलक।
भूल करके भेद और विरोध की बातें अखिल।
एक ही रंग, बीच रँग जाती थी सारी जाति मिल।17।
किन्तु अब इस पर्व का है हो रहा जैसा पतन।
किस विबुध का देखकर उसको व्यथित होगा न मन।
प्रति बरस है म्लान होता कंज सा इसका बदन।
है बिगड़ती जा रही इसकी बड़ी सुन्दर गठन।
धूल में है मिल रही इसकी सभी मधुमानता।
मत्तता, आमोद, मंजुलता, उमंग, महानता।18।
विश्व में जिस पर्व से जो जाति है गौरव-मई।
है सदा जिसने मिटाई कालिमा जिसकी कई।
है जिसे जिस से मिली बहु जीवनी धारा नई।
र्कीत्तिा जिसके व्याज से जिसकी दिगन्तों में गयी।
आह! भ्रान्त अतीव बन उस जाति के ही वंश-धार।
नाश करते हैं उसे नहिं देख सकते आँख-भर।19।
रंग पड़ता देख उनका रंग जाता है बदल।
लाल हो जाते हैं, मूठ गुलाल जो जाती है चल।
कुमकुमों की मार उनको है बना देती विकल।
है उन्हें चंचल बनाता गायकों का मत्त दल।
मुख रँगों को देख वे मुख तक उठा सकते नहीं।
धूल उड़ती देख उनकी धूल उड़ती है वहीं।20।
किन्तु उनकी अवगुणों की ओर ही आँखें अड़ीं।
वे नहीं उसके गुणों पर भूल करके भी पड़ीं।
वे कभी बारीकियों में भी नहीं उसकी गड़ीं।
वे नहीं रुचि साथ ऊँची आँख से उसकी लड़ीं।
वे सकीं न विलोक उसकी रीतियाँ न्यारी रची।
है बहुत कुछ आज तक जातीयता जिनसे बची।21।
कौन कहता है कुचालें हैं घुसी उसमें नहीं।
मानता हूँ हैं बुरी धारें कई उसमें बहीं।
किन्तु हैं सच्ची सपूती काम करने में वही।
लोकहित के वास्ते बुध ने जहाँ आँचें सहीं।
मुख बनाना, चुटकियाँ लेना, बहकना है मना।
जो बिगड़ती बात अपनी हम नहीं सकते बना।22।
क्यों कुचालों पर न होंगी धार्म की मुहरें लगी।
क्यों अजानों की सभी बातें न होवेंगी रँगी।
दिन दहाडे जो उन्हीं के सामने होगी ठगी।
ज्ञान की बर ज्योति है जिनके विमल उर में जगी।
क्यों न होती जायगी, तम-पुंज की धारा सबल।
जो दमकती भानु की किरणें न आएँगी निकल।23।
दल अबोधों का कुचालों में इधार उलझा रहे।
दल सुबोधों का उधार निज गौरवों ही में बहे।
तो बता दो जाति किससे निज व्यथाओं को कहे।
वह कुअवसर में लपक कर किसके दामन को गहे।
निज परब त्यौहार में जिनकी नहीं ममता रही।
वे मरम जातीयता का जानते कुछ भी नहीं।24।
मण्डली नव शिक्षितों की है नये रँग में ढली।
है पुरानी ढंग वालों के लिए सब ही भली।
वे नये ढँग से खिलाना चाहते हैं कुल कली।
ये उसे तजते नहीं जो बात है अब तक चली।
द्वंद्व में पड़कर इसी अब वह नहीं नाता रहा।
सब परब त्यौहार का वह रंग ही जाता रहा।25।
तीस चालिस साल पहले सामने जो था समा।
जो अनूठापन, परस्पर प्यार था दृग में रमा।
रंग जैसा उन दिनों आमोद का देखा जमा।
जिस तरह से तब उरों में चाव रहता था थमा।
आह! हमको आज दिन वह बात दिखलाती नहीं।
वे उमंगें बादलों सी झूमती आतीं नहीं।26।
उन दिनों थी ज्योंति फैली ज्ञान की इतनी नहीं।
उन दिनों भी सब कुचालें आज दिन की सी रहीं।
किन्तु अपनापन रहा तब आज से बढ़कर कहीं।
इन दिनों सी तब न थी जातीयता भीतें ढहीं।
एक दिल हो उन दिनों जैसे गले लगते नहीं।
लोग वैसे आज दिन यक रंग में रँगते नहीं।27।
किन्तु हमको है बहुत नव शिक्षितों से ही गिला।
प्यार से क्या वे अजानों को नहीं सकते मिला।
क्या मनो मालिन्य की जड़ वे नहीं सकते हिला।
वे पुन: जातीयता को क्या नहीं सकते जिला?
हैं न ये बातें असम्भव जो हृदय में त्याग हो।
जाति का अपने परब त्योहार का अनुराग हो।28।
क्या हुआ लिक्खे पढ़े ज़ो चित्त में समता न हो।
निज परब त्यौहार की औ जाति की ममता न हो।
जी परस्पर प्यार में सद्भाव में रमता न हो।
थामने से भी हृदय का वेग जो थमता न हो।
वह बड़प्पन सभ्यता गौरव धारातल में धंसे।
लोकहित की लालसा रंगत नहीं जिस पर लसे।29।
जो परब त्योहार अपने हम मनावेंगे नहीं।
जो बुरी परिपाटियों को हम मिटावेंगे नहीं।
जो बहकते भाइयों को पथ दिखावेंगे नहीं।
ज्योति जो घिरते तिमिर में हम जगावेंगे नहीं।
तो भला किसको पड़ी है और की जो ले बला।
जाति ही सकती है कर निज जाति का सच्चा भला।30।
आज भी वह बात इनमें है कि जिससे हो भला।
हम सुमति के साथ सकते हैं सुफल जिससे फला।
हम तिनक कर भूल इनका घोंट सकते हैं गला।
पर कहाँ फिर पा सकेंगे देश-व्यापी यह कला।
जाति जो न स्वपर्व उत्सव प्रेम-धारा में बही।
वह रही तो नाम को संसार में जीती रही।31।
ऐ नयी पौधों करो मत जाति हित में आतुरी।
फूँक दो अनुराग निजता-धुन-भरी वर बाँसुरी।
ऐ पुराने ढंग वालो! छोड़ दो चालें बुरी।
आँख खोलो फेर लो अपने गले पर मत छुरी।
प्यार से मिल, गोद में निज उत्सवों को लो लिटा।
जाति जीती कब रही निज कीर्ति चिद्दों को मिटा।32।
कवि सम्राट श्री अयोध्यासिंह उपाध्याय
ओ३म् नमस्ते जी अत्यंत प्रेरणादायक लेख। आपको कोटि -कोटि नमन,वंदन,अभिनन्दन।पर्व की मंगलकामनाएं Munendra
नवसंश्येष्टि पर्व का यह अद्भुत वर्णन, हम सब मिलकर अपने त्योहार होली को किस तरह सहेज कर रखे। यह आपने हमें सिखाया है। बहुत बहुत धन्यवाद।